त्वरित टिप्पणी/ प्रशांत मिश्र
त्रिपुरा के नतीजों ने क्षेत्रीयता पर राष्ट्रीयता का रंग चढ़ने को साबित किया है. अंदरूनी खींचतान में बिखरे वाम दलों के लिए अब अस्तित्व का संकट गहरा गया है. त्रिपुरा के नतीजे अभूतपूर्व हैं. 2013 में भारतीय जनता पार्टी ने यहां शून्य से अपनी शुरुआत की थी और पांच साल बाद लगभग 50 फीसद वोट पाकर सत्ता के शिखर तक पहुंच गई है.
इसे चुनावी लोकतंत्र में चमत्कार ही कहा जाना चाहिए. जिस तरीके से भाजपा ने यहां वाममोर्चे को जबर्दस्त पटखनी दी है, उससे दिल्ली की टीवी डिबेटों में बैठने वाले राजनीतिक पंडित व विश्लेषक भी भौचक हैं.
इस जीत के पीछे मोदी का नेतृत्व और अमित शाह की सटीक व्यूह रचना को तो श्रेय जाता ही है, लेकिन सही मायनों में त्रिपुरा की जीत का बड़ा श्रेय वहां दो साल से डेरा जमाये बैठे संघ के सुनील देवधर, बिप्लब देब और कांग्रेस ने जिसे थाली में परोसकर दिया था, उस हेमंत बिस्वसरमा को जाता है.
भारतीय जनता पार्टी जिस मंथर लेकिन जड़ें जमाती हुई गति से चल रही है, उसमें कांग्रेस नेतृत्व के लिए अभी पार पाना बहुत आसान नहीं होगा. त्रिपुरा के नतीजे कर्नाटक में भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेंगे.
भाजपा कर्नाटक में इसे भी प्रचारित करेगी कि कांग्रेस की शीर्ष नेता स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पास भी इतने राज्य नहीं रहे और यदि 18 राज्य मान भी लें तो वह भी साम, दाम, दंड व भेद से हथियाए हुए थे. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की झोली में अपने दम पर 20 राज्य डाल दिए हैं.
जो भी हो, यह साबित हो गया है कि कांग्रेस मुक्त भारत से शुरू हुआ भाजपा का अभियान अब वाम मुक्ति की ओर बढ़ने लगा है. त्रिपुरा हारने के बाद वाम पार्टियां केवल केरल में बचेंगी, जहां हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है.
पश्चिम बंगाल हारने के बाद से अंदरूनी लड़ाई में बिखर रहे वाम के लिए अब अस्तित्व का संकट है. उनके लिए यह सोचने का वक्त है कि उनकी रीति नीति समाज से जुड़ी भी है या नहीं. जबकि पड़ोस के पश्चिम बंगाल में काबिज तृणमूल कांग्रेस को यह संकेत डरा सकता है.
पूर्वोत्तर में जो नतीजे दिखाई दे रहे हैं, उसका सूत्रपात 2014 में ही हो चुका था. तकरीबन तीन साल पहले मोदी व शाह ने मिलकर उत्तर पूर्व को ‘चलो पलटाई’ का जो नारा दिया था, वह साकार हो गया है.
इस जीत का असली श्रेय संघ, भाजपा और वहां के प्रभारियों को जाता है. 2014 में सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि पश्चिमी राज्यों में विकास तो गति पकड़ चुका है, लेकिन पूर्वी राज्य इस विकास की गति से अछूते रह गए हैं और कांग्रेस और वामपंथी सदैव इससे मुंह मोड़ते रहे हैं.
हमारा काम होगा कि इन पूर्वी राज्यों को भी देश के विकास की मुख्य धारा से जोड़ें.
दरअसल, ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर राजनीति करने वाले वामदलों का बचा खुचा मुलम्मा भी त्रिपुरा में भाजपा की लैंड स्लाइड विक्ट्री के बाद उतर चुका है.
पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में दशकों से काबिज वामदल नेतृत्व तो ईमानदार चेहरा रखते थे, लेकिन उस ईमानदारी की आड़ में भ्रष्टाचार और लूट की हदें पार करते थे. इसीलिए लगभग तीन दशकों से पश्चिम बंगाल की राजनीति में काबिज वाम मोर्चे को ममता बनर्जी की अनगढ़ पार्टी ने जोरदार पटखनी दे दी.
यहां यह भी याद रखना चाहिए, कि ज्योति दा और बुद्धदेव भट्टाचार्य भी ईमानदारी के पुतला ही थे. उसी कड़ी में त्रिपुरा के माणिक सरकार भी आते हैं. इसीलिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर में मिली अभूतपूर्व सफलता के बाद कहा है कि भारत की राजनीति के लिए ‘लेफ्ट अब कहीं से भी राइट नहीं बचा है.’
महान वामपंथी विचारक और सोवियत नेता ट्राटस्की ने कहा था कि वह समय दूर नहीं, जब वामपंथी विचारधारा न्यूजपेपर की हेडलाइनों से निकलकर केवल पाठ्यपुस्तकों तक सिमट जाएगी. वामपंथी नेता राष्ट्रपति भवन के प्रतिनिधिमंडल में अपनी भूमिका खोजेंगे.
त्रिपुरा की जीत ने कर्नाटक और 2019 के लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है. 22 साल के नेतृत्व के बाद गुजरात चुनाव में जो सीटों में कमी आई थी, उसकी भी भरपाई, त्रिपुरा ने कर दी है. पांच सालों में भाजपा के लिए यह आशातीत सफलता है.
भाजपा के एक शीर्ष नेता के मुताबिक – ‘जीत केवल उत्साह ही देती है ऐसा नहीं है, बल्कि आगे बढ़ने की प्रेरणा भी. अब हमारा लक्ष्य 2019 है. कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हमारा काम शुरू हो चुका है.’
(प्रशांत मिश्र दैनिक जागरण के राजनीति संपादक हैं, यह लेख उन्हीं से लिया गया है)