…तो क्या बीजेपी से लड़ने के लिए सभी विपक्षी दल आयेंगे साथ ?

एनटी न्यूज़ डेस्क/ राजनीति

गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव

बीते चार साल से भाजपा के सामने पस्त होते रहे विपक्षी दलों के लिए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के नतीजों ने उम्मीद का दरवाजा खोल दिया है. सपा-बसपा के सामाजिक समीकरण की कामयाबी ने विपक्षी दलों को अपनी सियासी जमीन वापस हासिल करने का विकल्प दे दिया है.

भाजपा को 2019 में चुनौती देने की राह तलाश रही कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी नतीजों ने एकजुटता की राह दिखा दी है.

भाजपा के सियासी उफान से अपनी राजनीतिक नैया को बचाते हुए किनारे लगाने की विपक्षी दलों की यह उम्मीद ऐसे समय जगी है जब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकजुटता की कोशिशें शुरू हुई हैं.

राष्ट्रीय राजनीतिक की करवट तय करने वाले देश के सबसे बड़े सूबे में भाजपा को थामने का संदेश देना ही विपक्षी दलों के लिए एक बड़ी सियासी कामयाबी से कम नहीं है.

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह भाजपा राज्य दर राज्य जीत की पताका लहराती रही है, उससे विपक्षी दलों का मनोबल टूटता रहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जुबानी चुनौती देती रही कांग्रेस जमीनी सियासत पर इन चार वर्षो में संगठन के तौर पर अपनी वापसी का कोई सकारात्मक संदेश नहीं दे पाई है.

इस हकीकत को भांपते हुए ही कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में मजबूत विपक्षी विकल्प बनने की कसरत कर रही है.

पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सोमवार रात इसी कोशिश के तहत 20 विपक्षी दलों के नेताओं को रात्रिभोज के बहाने चर्चा के लिए आमंत्रित किया था.

इस बीच उत्तर प्रदेश उपचुनाव के नतीजों ने विपक्षी एकजुटता के दरवाजे खोल दिए हैं.

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कांग्रेस ही नहीं तमाम क्षेत्रिय पार्टियों को भी भाजपा का लगातार विस्तार अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती बनता दिख रहा है.

इसीलिए क्षेत्रीय पार्टियां भी तमाम राजनीतिक विरोधाभासों के बावजूद अपनी सियासत बचाने की रणनीति पर काम कर रही हैं.

विपक्षी दल इस हकीकत से वाकिफ हैं कि भाजपा के राजनीतिक प्रबंधन को अकेले अपने बूते रोकना बहुत मुश्किल चुनौती है.

मौजूदा हालात में सामाजिक और सियासी समीकरण के दोहरे दांव के सहारे ही भाजपा को रोका जा सकता है.

गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी और बसपा की दोस्ती के नतीजों पर तमाम दलों की निगाहें थीं.

इसलिए राहुल गांधी, ममता बनर्जी, उमर अब्दुल्ला, सीताराम येचुरी से लेकर शरद यादव तक ने इस कामयाबी पर जिस तरह सकारात्मक प्रतिक्रिया का इजहार किया, उससे साफ है कि विपक्ष के लिए इस जीत के मायने क्या हैं?

विपक्ष के लिए यह परिणाम इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि जमीनी स्तर पर सियासी समीकरण की कामयाबी से सामाजिक न्याय की राजनीति की धीमी पड़ चुकी आवाज को फिर से मुखर किया जा सकता है.

ओबीसी और दलित वोट बैंक में भाजपा ने जिस तरह पिछले चार वर्षो में अपनी पैठ मजबूत की है, कांग्रेस के लिए सीधे उसे भेदना आसान नहीं है.

मगर उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और बिहार में राजद के सहारे भाजपा के सियासी आधार पर चोट करने का दांव चला जा सकता है.

उपचुनाव में जीत के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने सामाजिक न्याय की लड़ाई के साथ बसपा सुप्रीमो मायावती का खुले दिल से आभार जता इस दांव को चलने के विपक्षी खेमे के इरादों का संकेत भी दे दिया.