सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में तत्काल एफआइआर और गिरफ्तारी की मनाही करने वाले अपने फैसले पर रोक लगाने से मंगलवार को इन्कार कर दिया. हालांकि कोर्ट ने फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका विचारार्थ लंबित रख ली.
नहीं मानी कोर्ट ने दलीलें
कोर्ट ने फैसले से एससी-एसटी कानून कमजोर होने की दलीलें ठुकराते हुए कहा कि कानून को कमजोर नहीं किया गया है, सिर्फ निर्दोषों को जेल जाने से बचाने का इंतजाम किया गया है. किसी को डराने के लिए कानून का उपयोग नहीं किया जा सकता. विरोध कर रहे लोगों ने फैसला नहीं पढ़ा है.
कोर्ट ने कहा कि निहित स्वार्थ के चलते उन्हें उकसाया गया है. फैसले में एफआइआर दर्ज करने पर रोक नहीं है. जांच में शिकायत सही होने पर एफआइआर दर्ज होगी. प्रारंभिक जांच के लिए अधिकतम सात दिन का समय तय है. वैसे प्रारंभिक जांच 10 मिनट में भी हो सकती है और एक घंटे में भी.
दो जजों की खंडपीठ ने की टिपण्णी
ये टिप्पणियां जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस यूयू ललित की पीठ ने केंद्र की पुनर्विचार याचिका पर खुली अदालत में सुनवाई के दौरान कीं. कोर्ट ने मामले में सभी पक्षों से तीन दिन में लिखित दलीलें मांगी हैं. दो सप्ताह बाद फिर सुनवाई होगी. सरकार पुनर्विचार याचिका पर खुली अदालत में सुनवाई होने और विचारार्थ लंबित रख लिए जाने को अपनी जीत के रूप में देख रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने गत 20 मार्च को एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून में तत्काल एफआइआर दर्ज करने और गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. इस पर पूरे देश में राजनीति गरमाई हुई है. सरकार ने मंगलवार को पुनर्विचार याचिका पर जल्द खुली अदालत में सुनवाई की मांग की.
कोर्ट ने अनुरोध स्वीकारते हुए दोपहर में ही सुनवाई की. सामान्य नियम में ऐसी याचिका पर चैंबर में विचार होता है. सुनवाई में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि फैसले से एससी-एसटी कानून कमजोर हुआ है.
इस वर्ग के लोग सैकड़ों वर्षो से सताए हुए हैं, लेकिन कोर्ट के आदेश में तत्काल एफआइआर पर रोक लगाई गई है. ऐसे में पुलिस मामले टालने लगेगी और केस दर्ज ही नहीं होंगे.
एफआइआर दर्ज हुए बगैर भी पीड़ित को मिलेगा मुआवजा
वेणुगोपाल ने कहा कि प्रताड़ित व्यक्ति को मामला दर्ज होने के बाद मुआवजा देने का नियम है, लेकिन जब एफआइआर ही नहीं होगी तो मुआवजा कैसे मिलेगा.
इस पर कोर्ट का कहना था कि अगर शिकायत झूठी है तो मुआवजा क्यों दिया जाए.
लेकिन बाद में कहा कि प्रताड़ना के वास्तविक मामले में एफआइआर दर्ज हुए बगैर भी पीड़ित को मुआवजा दिया जा सकता है.
अन्य कानून में दर्ज हो सकती है एफआइआर
कोर्ट ने यह भी साफ किया कि शिकायत में अन्य कानून के तहत अपराध की बात भी है तो अन्य कानून में एफआइआर दर्ज होगी. प्रारंभिक जांच का आदेश सिर्फ एससी-एसटी एक्ट के मामले में है.
किस कानून में है तत्काल गिरफ्तारी की बात
कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल से पूछा कि किस कानून में मामला दर्ज होते ही तत्काल गिरफ्तारी की बात कही गई है. यहां तक कि एससी-एसटी कानून में भी ऐसा नहीं है.
गिरफ्तारी के बारे में सीआरपीसी की धारा 41 में व्यवस्था दी गई है और कोर्ट ने सिर्फ उसे ही दोहराया है.
कानून का दुरुपयोग रोकना है मकसद
कोर्ट ने कहा कि वे बेगुनाहों के लिए चिंतित हैं. झूठी शिकायत पर कोई बेगुनाह जेल नहीं जाना चाहिए. अनुच्छेद 21 में मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर विचार करते हुए बेगुनाहों को बचाने के लिए कोर्ट ने फैसला दिया है. संविधान लागू करना कोर्ट का कर्तव्य है.
जब वेणुगोपाल ने कहा कि ये अधिकार सिर्फ अभियुक्त का नहीं, पीड़ित का भी है. तो पीठ का जवाब था कि कानून का दुरुपयोग कोई भी कर सकता है. पुलिस भी कर सकती है, इसलिए यह व्यवस्था दी गई है.
कोई अटॉर्नी जनरल पर झूठा आरोप लगा दे तो..
पीठ ने झूठी शिकायतों से सरकारी कर्मचारी को बचाने की मंशा का हवाला देते हुए कहा कि झूठी शिकायत होने पर सरकारी कर्मचारी कैसे काम कर पाएगा.
अगर कोई अटॉर्नी जनरल के खिलाफ झूठी शिकायत करे तो क्या होगा? वह कैसे काम करेंगे?
‘सोचा नहीं था कि यह राजनीतिक मुद्दा बन जाएगा’
एससी/एसटी एक्ट मामले के शिकायतकर्ता ने कहा है कि उन्हें नहीं पता था कि यह फैसला एक अहम राजनीतिक मुद्दा बन जाएगा. पुणो के सरकारी कॉलेज के कर्मचारी भास्कर गायकवाड का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले पर वह केंद्र से अलग पुनर्विचार याचिका दायर करने जा रहे हैं.
गायकवाड बताते हैं कि 2007 में उन्होंने यह लड़ाई शुरू की थी. फार्मेसी कॉलेज में स्टोर कीपर भास्कर कहते हैं कि ऊंची जाति के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने उनसे कागजों में हेरफेर करने को कहा था. वह नहीं माने तो उनकी एसीआर में प्रतिकूल टिप्पणी दर्ज कर दी गईं.
साल 2009 में तकनीकी शिक्षा के संयुक्त निदेशक सुभाष महाजन के साथ उन्होंने शिकायत दर्ज कराई. महाजन ने उनका साथ नहीं दिया, तो वह उनके खिलाफ भी हो गए.
महाजन खुद पर दर्ज केस को रद कराने के लिए अदालत गए. सरकार ने उनका साथ दिया, लेकिन उन्हें हाई कोर्ट से राहत नहीं मिली. फिर वह सुप्रीम कोर्ट चले गए. 20 मार्च को अदालत ने फैसला दिया, जिससे एससी/एसटी एक्ट बेमतलब हो गया.