लोकतंत्र – ‘हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया, मैं जिंदगी का जश्न मनाता चला गया’

एनटी न्यूज़ डेस्क/ योगेन्द्र त्रिपाठी

लोकतंत्र, जिसकी परिभाषाएं, मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन मूल कभी नहीं बदल सकता. लोगों के द्वारा खुद का शासक चुनना और एक व्यवस्था के तहत चीज़ों को आगे बढ़ाना, जिसमें सौ फीसदी सहभागिता जनता की हो’, लेकिन ये तो इस उदारवादी शासन प्रणाली का सबसे मूल विचार है. फिर कहाँ और क्यों चीज़ें छूटती जा रही हैं, क्यों लोग इस सबसे महान व्यवस्था में उसी तरह की मजबूरी महसूस कर रहे हैं, जैसे किसी तानाशाह के शासन में किया करते थे. कुछ तो है, जो हमारे उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बर्बाद करने पर तुला है?

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पार्टी और जनता की ‘भूख’ में फर्क होता है साहब…

हमारी ही चुनी हुई सरकार मुद्दों से भटक रही है. देश के लोकतंत्र में जहाँ एक तरफ ‘दाग़ और दाग़ी’तंत्र मजबूत हो रहा है. वहीं, भूख लोगों की जान लेने पर तुला है. भूख चाहे पेट का या सत्ता का, दोनों दुखदायक ही हैं. दोनों से ही अगर किसी का नुक्सान है तो हम और आप हैं. आइए जरा सत्ता और भूख के बीच की खाईं भी जान लेते हैं.

अगर वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के रिपोर्ट की मानें तो देश में भूख की दर बढ़ी है. हम अभी भी 100 स्थान पर टिके हुए हैं. डब्लूएचओ की रपट बताती है कि लोगों को साफ़ पानी न मिलने की वजह से हर घंटे 73 जानें जा रही हैं. हर घंटे प्रदूषण के कारण तक़रीबन 206 लोग अपनी सांसें थाम ले रहे हैं. लेकिन सत्ता मोहियों के लिए ये हालात प्राथमिकता में नहीं है.

लोगों के न तो हालात बदल रहे हैं और न ही हाल. बस बदल रहा है तो कुर्सी पर बैठने वाला. वह आदमी जिसे हम आप चुनकर भेजते है कि ये हमारे लिए कानून और योजनाएं बनाएगा, वह गुम हो जाता है. सालों बीत जाते हैं, गावों के खड़ंजे पर उसकी आमद नहीं होती. क्या स्वास्थ्य, क्या सड़कें सब की सब चरमराई हुई हैं. फिर भी हम दुनिया के सबसे पुराने और बड़े लोकतंत्र के वासी हैं. पुराना इसलिए क्योंकि यहां लोकतंत्र का प्रयोग चंद्रगुप्त जैसे शासकों के जमाने से होता आ रहा है और बड़ा इसलिए क्योंकि भारत 135 करोड़ की आबादी वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है.

तो चलिए… उन मुद्दों से इस महान लोकतंत्र की बानगी समझते हैं, जो हर आम लोकतंत्र वासी के लिए बेहद जरुरी है. लेकिन उससे पहले उन नीतिनियंताओं की बातें जो अपने रास्ते से भटक गये हैं. एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक शोध की मानें तो जिन्हें हम चुनकर भेज रहे हैं, वह खुद लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनाने के खेल में उलझे हुए हैं. तभी तो सांसद या विधायक बनने के बाद 100 फीसदी से लेकर 1000 फीसदी तक उनकी अर्थव्यवस्था में उछाल आ रहा हैं. लोकतंत्र के मंदिर संसद के 543 सदस्यों में से 443 सदस्य करोड़पति-अरबपति हैं. अगर देश की सारी विधानसभाओं को मिला लिया जाए तो 4219 विधायक हैं, जिनमें से 2391 माननीय करोड़पति या अरबपति हैं.

अब जरा इन ‘प्रजातांत्रिक पुजारियों’ की नियत भी देख लीजिए. 543 सांसदों में से 185 सांसद दागी हैं, माने कोई न कोई केस झेल रहे हैं या बड़े आरोप हैं इनपर. वहीं, अगर विधानसभाओं की बात करें तो 4219 में 2183 विधायकों के ऊपर कानूनी डंडा चल रहा है या कोई न कोई आरोप है.

माने… हम जिनको अपने लिए कानून बनाने के लिए भेज रहे हैं. वह खुद कानूनी दंडा झेल रहे हैं. तो क्या क़ानून या क्या अपराध सब बराबर है समझ लीजिये.

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लोकतंत्र के वह खम्भों की जिन पर ये टिका हुआ है…

अब बात लोकतंत्र के उन नौ खम्भों की जिसका चौकीदार हम किसी आदमी को चुनकर बनाते हैं. वैसे हमारे लोकत्रंत्र का विचार तो अशोक के लाट यानी सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तंभ से आता है लेकिन एक-एक करके सारे खंभे लगातार कमजोर हो रहे हैं. जिसका दर्द जनता को चुकता करना पड़ रहा है तो इन खम्भों को समझिए और इनकी कमजोरियों को भी. क्योंकि अभी इसके सडन का दौर चल रहा है.

सुप्रीम कोर्ट-

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सुप्रीम कोर्ट की कार्यशैली पर देश की संसद और लोग सवाल खड़े कर रहे हैं. कभी फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं तो कभी देश के सर्वोच्च न्यायधीश के खिलाफ सांसद सदन में. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ आजकल विपक्ष लामबंद हैं. खबर है कि जल्द ही महाभियोग लाने की तैयारी की जा रही है.

चीफ जस्टिस के अपने ही उनपर मुद्दों और नियमों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं. कितना सच-कितना झूठ लेकिन जिस न्यायिक व्यवस्था पर हर आम-ओ-खास का भरोसा था या है, वही आज कठघरे में खड़ा खुद के लिए सफाई पेश कर रहा है. माने, लोकतंत्र की न्यायिक व्यवस्था खुद के लिए जीवनदायनी ऑक्सीजन मांग रही है.

संसद-

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देश की संसद का सबसे महत्वपूर्ण काम जन सरोकार है. अगर जनता के लिए काम करने वाली और वेतन लेनी वाली व्यवस्था जनता के लिए काम नहीं कर रही है तो इससे बड़ा विरोधाभास क्या समझिएगा.

देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर विरोध के कारण पिछले 20 दिनों से ठप्प पड़ा है. नेता रोज आ जा रहे हैं लेकिन हंगामें की आवाजें जनता की आवाजों को उठने से पहले ही दबा दे रही हैं. हंगामें का शोर इतना है कि करीब 100 से ज्यादा छोटे-बड़े बिल (कानून) सालों से लटके पड़े हैं, जिनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनका फायदा जनता को तत्काल मिलेगा. लेकिन क्या पक्ष और क्या विपक्ष, दोनों अपने-अपने हितों को साधने के लिए जनता को ‘असाध्य’ बनाते जा रहे हैं. माने, यदि इसे एक लाइन में कुछ कहें तो यही होगा कि ‘जनतंत्र की प्रणाली जन सरोकार से मीलों दूर खड़ी है’.

बैंकिंग सेक्टर-

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आम जनता के पैसे का हिसाब किताब रखने वाली बैकिंग सेवाएं खुद बेहिसाब हैं. उनसे कोई भी पैसा ले रहा है और लेकर रफूचक्कर हो जा रहा है. बैंकिंग सेक्टर नीतिनियंताओं में हड़बड़ी पता नहीं कैसी है कि विश्वास की सेवा के बजाय यह फ्राड सेवा ज्यादा नज़र आ रही है. बीते तीन सालों में ही इस सेक्टर में सालों में ही इस सेक्टर में 8343 फ्राड हो गये तो एनपीए में देश की मेहनतकश जनता का करीब 10 लाख करोड़ स्वाहा हो चुका है.

बैंकिंग सेक्टर से रोज किसी न किसी के पैसा लेकर भाग जाने की खबरें आम हो चली हैं. वहीं, किसी आम आदमी को बैंक से लोन लेने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के बाद भी कमीशन देना पड़ रहा है और ख़ास आदमी बैंकों की शाख दांव पर लगाकर चुपके से विदेश में जाकर बस रहा है.

बैंक दर बैंक पैसे की ऐसी लूट मची है कि आम आदमी को छोड़िये ‘सरकार’ को भी नहीं समझ आ रहा कि इसे रोकने का क्या उपाय सुझाया जाए. वहीं, बैंक को चलता रखने के लिए आम आदमी के अकाउंट से ‘क्रेडिट और डेबिट’ का बड़ा खेल बड़े-बड़े खिलाड़ियों के समझ से परे है.

शिक्षा-

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देश के बच्चे-बच्चे को शिक्षित करने का दावा करने वाली सरकारों के पास न तो इसके लिए बेहतर तंत्र है और न ही बजट. तंत्र की बानगी आपने सीबीएसई और एसएससी के पेपर लीक से जान ही ली होगी. तो जरा बजटीय आकड़ों पर गौर फरमाइएगा. सरकार ने इस वित्त वर्ष में पूरे देश की हर स्तर के शिक्षा व्यवस्था के लिए तक़रीबन 76 हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया, जो देश के उन एक फीसदी छात्रों की फीस से करीब 44 हजार करोड़ रूपये कम है, जो वह विदेशों में पढ़ने के लिए हर साल दे देते हैं. माने हर साल महज एक फीसदी के कम छात्र-छात्राओं द्वारा विदेशी विश्वविद्यालयों को एक लाख 20 हजार दे दिया जाता है. यह उदहारण सब कुछ बयान कर देता है, इस व्यवस्था के लिए.

देश की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा सिस्टम की राजनीति में फंसी पड़ी है तो उच्च शिक्षा राजनीति के चक्कर में दिन बा दिन कमजोर होती जा रही है. देश में हर हाथ हुनर और हर हाथ कलम का दावा करने वाली सरकारें दोनों में फेल साबित हो रही हैं. देश में चल रहे सर्वशिक्षा अभियान के बावजूद बाल मजदूरों और बाल भिखारियों में संख्या में पिछले कई सालों से कोई कमी नहीं आ रही है. वहीं, उच्च शिक्षा पर हजारों-लाखों खर्च करके युवा उन्हीं भिखारियों की श्रेणी में बेरोजगार खड़ा है.

शिक्षा की यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था एक तरह से नवनिर्माण की मांग कर रही है लेकिन हमारी संसद को इसके लिए समय ही नहीं है.

स्वास्थ्य-

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स्वास्थ्य सेवाओं की बानगी तो पूछिए ही मत. अब यह महज अस्पतालों में बेड की कमी या ग्रामीण इलाकों में अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी तक ही सीमित नहीं है. यह बजट की भारी कमी से जुझते हुए खुद ही वेंटिलेटर पर जा लेटी है.

स्वास्थ्य सेवाओं पर सेवाओं पर खर्चने के लिए महज 57 हजार करोड़ हैं. वहीं, लोगों के जान को बचाने का धंधा करने वाले लोगों यानी प्राइवेट अस्पतालों की कमाई साढ़े छः लाख करोड़ के जादुई आकड़े को पार कर बैठी है. लोगों के जान को बचाने या ईलाज करने का धंधा अब बहुत ही विभिषक शक्ल अख्तियार कर चुका है. बिल के रकम का छोटे से छोटे बीमारी के लिए लाखों में पहुँच जाना आम बात हो चुकी है.

आम आदमी के पहुँच में सरकारी स्वास्थ्य सेवायें लाने का दावा करने वाली सरकारों के अस्पातल की भीड़ ही लोगों को ईलाज के लिए ज़िन्दा नहीं रहने दे रही हैं. देश तक़रीबन तीन लाख प्रशिक्षित डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों की भारी भरकम कमी से जूझ रहा है.

ईलाज भी मुनाफे का जरिया बन कर अब लोगों की तबियत बिगाड़ रहा है. वहीं, प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि आने वाले 2020 तक हर तीसरे जिले में बढ़िया मेडिकल कॉलेज खुल जाएंगे. खैर, आगे बढ़ते हैं.

खेती-किसानी-

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तक़रीबन 25 करोड़ की आबादी की कमाई का एक मात्र जरिया आज लोगों से उनका निवाला छीन रहा है. पूरे देश के लिए रोटी का जुगाड़ करने करने वाले किसान और खेतिहर मजदूर आज अपनी रोटी के लिए मौत का मुंह ताकते नज़र आ रहे हैं.

बानगी देखिये इस 70 साल पुराने लोकतंत्र की, जो कभी जय जवान, जय किसान लगाती थी. आज वही किसान फांसी के फंदे या ज़हर से अपने जीवन लीला को खुद निगलते नज़र आ रहे हैं. हर रोज 12 किसान अपने परिवार की ख़ुशी और सरकार को जगाने के लिए ‘खुदखुशी’ कर रहे हैं. लेकिन सरकार और उसकी नीतियां हैं कि वह उठने का नाम नहीं ले रही हैं. इस बीच खबर है कि देश का कृषि विकास दर कई सालों के सबसे निचले स्तर पर है. यह दर अभी 1.7 फीसदी पर है.

माने… जो करोड़ों लोगों के खाने का इंतजाम करता है, वही आज भूखों मरने के लिए विवश है. इस विवशता के बीच सरकार किसानों से वादा कर रही है या यूँ सब्जबाग़ दिखा रही है कि आने वाले सालों में आपकी आय दोगुनी कर दी जाएगी, लेकिन इसका कोई खाका किसी ने पास अब तक नहीं है.

उद्योग-

यह क्षेत्र भी अब सिस्टम की राजनीति से अछूता नहीं रह गया है. हमारा औद्योगिक क्षेत्र जो संगठित या असंगठित रूप से करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी चलाता है, वह विकास की दौड़ में हांफ रहा है. औद्योगिक उत्पादन अपने ढ़लान पर है. छोटे-मोटे उद्योग धंधे नोटबंदी और जीएसटी के बाद या तो बंद हो चुके हैं या जिनमें बहुत हिम्मत है वह धीरे-धीरे ख़त्म होने का इंतजार कर रहे हैं.

देश के सेवा क्षेत्र में कभी नौकरियों की भरमार हुआ करती थी, आज तमाम कारणों से वह भी खुद के वजूद को बनाये रखने के लिए सिस्टम से दो-दो हाथ करते नज़र आ रहे हैं.

पुलिस-

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कानून व्यवस्था से लेकर लोगों की चप्पल चोरी तक का जिम्मा सँभालने वाली पुलिस खुद को ठगा सा तब महसूस करती है, जब उसे अकारण ही नेताओं से लेकर आम लोगों तक निशाने को झेलना पड़ रहा है.

यह वह विभाग है, जिस पर सबसे ज्यादा आरोप लगे हैं और लगते आ रहे हैं. पुलिस सत्ता के आगे नत्मस्तक हो रही है तो कभी हिंसा और अपराधियों के सामने. कई और बातें है, जो इस विभाग के कामकाज पर सवालिया निशान खड़े कर रही है. जिस पर देश की आन्तरिक सुरक्षा का एक बड़ा और जवाबदेहपूर्ण जिम्मा है.

युवा-

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युवाओं की तो बात ही न करिए. सत्ता और पार्टियों ने इन्हें अपने हाथों की कठपुतली बना रखा है. जब तब युवा सड़कों पर दिख रहे हैं. अगर आकड़ों की बानगी देखें तो 18 से 35 साल के युवाओं की आबादी करीब 33 करोड़ 34 लाख है. जिनमें से महज 10 करोड़ ही किसी संगठित या असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं.

अगर इंटरमीडियट से उच्च शिक्षा तक के आकड़ों पर नज़र डालें तो करीब 4 करोड़ 50 लाख युवा ही पढ़ाई के इस स्तर पर पहुँच सके हैं. यह आकड़ा इसी साल देश की सांख्यकी विभाग द्वारा जारी किया गया है. माने इस हिसाब से करीब 20 करोड़ युवा आबादी बिलकुल खाली घूम रही है.

ऐसे में इन युवाओं ने तमाम संगठनों के बैनर तले तख्तियां और तलवार थाम रखे हैं. कभी दलित चेतना के नाम पर तो कभी करणी सेना के नाम पर. तो कभी भाजपा के लिए सोशल मीडिया पर मुहीम चलाकर खेवनहार बन रहे हैं तो कभी किसी और पार्टी के लिए.

इस बीच एसएससी और सीबीएसई के पेपर लीक ने खुद के लिए भी आन्दोलन करने का मौका दे डाला है. लोकतंत्र की नज़र देखिए कितनी ओझल है कि इनकी तरफ कोई ताकने भर को नहीं तैयार है. जबकि चुनाव में हर पार्टी को इनका साथ और विश्वास चाहिए.

बरबादियों का सोग मनाना फ़जूल था

ये (जिन पर ऊपर चर्चा की गयी) किसी भी सजग लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण और विशाल पहलु हैं. इन्हीं मुद्दों के खम्भों पर लोग घरों से बाहर निकल कर किसी नेता को चुनते हैं और उसे देश या शहर की सत्ता के साथ-साथ अपना और आने वाली पीढी का भविष्य भी सौंपते हैं.

ऐसे में क्या कीजिएगा, जब कोई इस महान लोकतांत्रिक देश में किसी का कुछ सुनने वाला ही न हो. जब रोज़ दर रोज़ राजनीति के नाम पर लोकतंत्र का गला रेता जा रहा हो और लोकतंत्र खुद को जिंदा रखने के लिए किसी हकीम के पास ईलाज कर करवा रहा हो.

खैर, इस पर आपको देवानंद साहब की फिल्म हम दोनों का एक गाना सुनना चाहिए. शायद कुछ हिम्मत आये. रफ़ी साहब की आवाज़ से सजा ये गाना आज के लोकतंत्र के निवासियों के लिए बिलकुल ‘रामबाण ईलाज’ की तरह काम कर सकता है क्योंकि इसकी एक-एक लाइन हम लोगों के लिए सटीक है. नेता लोकतंत्र के मुख्य मुद्दों को सिगरेट के धुएं की तरह ज़ार-ज़ार, तार-तार करके उड़ा ही तो रहे हैं और हम अपनी बरबादियों के सोग भी नहीं मना सकते क्योंकि इसके अलावा भी बहुत सारे काम जो पड़े हैं… तो सुनियेगा कभी… इस लाजवाब गाने को…

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया

बरबादियों का सोग मनाना फ़जूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
हर फ़िक्र को…

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
हर फ़िक्र को…

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुक़ाम पे लाता चला गया
मैं ज़िन्दगी का साथ…

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