आओ जानें भारत क्या है : श्रीमद्भागवत महापुराण के ये श्लोक हजारों साल पहले ही लिख गये थे ‘जीवन चक्र’

न्यूज़ टैंक्स विशेष ||हमारा भारत ||

दो हजार साल पहले पौराणिक साहित्य में सूर्य और ग्रहों की गति का विशेष वर्णन पढ़कर मन अचंभित होता है कि जब पश्चिम में भूमि को गोल या चपटा मानने के सवाल पर ही झगड़ा था। बाइबल में चूंकि पृथ्वी चपटी बतायी गई इसलिए इसके विपरीत इसे गोल बताने या मानने को लेकर ही लोग फांसी पर चढ़ाए जा रहे थे, सत्य बोलने पर विष का प्याला पिलाया जाता था तब भारत में ज्ञान-मीमांसा किस तरह से आम जन के भीतर सत्यशीलता को धारण करने की प्रेरणा दे रही थी, इसका सुन्दर वर्णन पौराणिक साहित्य में मिलता है।

सूर्य, पृथ्वी एवं चंद्र समेत ग्रह-नक्षत्रों-राशियों का अद्भुत सटीक ज्ञान जिस तरीके से पुराणों में व्याख्यायित किया गया है, उसमें से यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि बगैर किसी विकसित वेधशाला अथवा प्रायोगिक गणितीय तंत्र के इसका ज्ञान भारतीय समाज को नहीं हो सकता था। पुराणों के संकलन का समय अधिकांश विद्वानों ने गुप्त काल यानी ईसा की तीसरी सदी से पांचवी सदी के मध्य माना है, हालांकि पौराणिक साहित्य इसके पूर्व से ही लोकजीवन की मान्यताओं के रूप में सप्रमाण रचे-बसे दिखाई देते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण सनातनधर्मावलंबियों का सबसे पूज्य ग्रंथ माना जाता है। सभी वर्णों और जातियों के लिए श्रीमद्भागवत महापुराण कथा सुनने और कथा के आयोजन का विधान है। इसमें किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं है। आज भी श्राद्ध के पश्चात या गया में पिंडदान के बाद हर आस्थावान सनातनी हिन्दू के लिए भागवत महापुराण का सामूहिक पाठ-श्रवण अनिवार्य धार्मिक विधान है जिसका पालन सदियों से होता चला आ रहा है।

श्रीमद्भागवत महापुराण में वैज्ञानिक ज्ञान की सनातन परंपरा भी बहुत ही प्रभावी ढंग से व्याख्यायित की गई है। इस ग्रंथ के एक श्लोक में सूर्य के उदित होने और अस्त होने का अत्यंत सुन्दर वर्णन मिलता है। इसके अनुसार,

‘यत्रोदेति तस्य ह समानसूत्र निपाते, निम्लोचति यत्र क्वचन स्येन्देनाभि तपति तस्य हैष समानसूत्र निपाते, प्रस्वापयति तत्र गतं न पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरन।।’

इस श्लोक का मतलब है कि-जिस स्थान पर भगवान सूर्य का उदय होता है, उसके दूसरी ओर यानी विपरीत स्थान पर भगवान सूर्य अस्त होते दिखाई देते हैं। मध्यान्ह यानी दोपहर में जब वह यहां (भारत के आकाश में) पसीने पसीने कर लोगों को तपाते हैं तो इसके ठीक दूसरी ओर(पृथ्वी के गोलार्ध के दूसरी ओर) इसी समय में आधी रात होने के कारण वह लोगों को निद्रावश कर देते हैं। यहां मध्यान्ह यानी दोपहर में वह स्पष्ट दिखते हैं जबकि दूसरी ओर रात्रि होने के कारण वह नहीं दिखते।

हजारों वर्ष पूर्व सूर्य के एक समय पर एक स्थान पर उदय होने और दूसरे स्थान पर अस्त होने के सन्दर्भ में इस तरह का स्पष्ट वर्णन संसार के उस दौर या उसके बाद में भी सृजित किसी अन्य साहित्य में नहीं मिलता। पृथ्वी के पूरे गोलार्ध पर दृष्टि रखते हुए सूर्य कहां किस समय किस तरह दिखते हैं, इसका पूरा वैज्ञानिक वर्णन भागवत कथा के पंचम स्कन्ध में दिया गया है। इसी स्कंध में उल्लेखित एक और श्लोक देखिए जिसमें एक वर्ष और महीनों का वर्णन है-

यस्यैकं चक्रं द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि संवत्सरात्मकं समामनन्ति तस्याक्षो मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तेरे….स एष आत्मा लोकानां द्यावापृथिव्योरन्तरेण नभोवलयस्य कालचक्रगतो द्वादश मासानां भुड़क्ते राशिसंज्ञान संवत्सरावयवान्मासः पक्षद्वयं दिवा नक्तं चेति….।।

इसमें कहा गया है कि भगवान सूर्य का संवत्सर नामक एक चक्र यानी पहिया है। इस चक्र के मासरूपी( धुरी और केंद्र को जोड़ने वाले महीने रूपी) बारह अरे हैं, इसमें ऋतुरूपी छः नेमियां हैं अर्थात इसकी 6 ऋतुएं हैं और चार-चार महीने रूपी(चौमासा) तीन नाभियां हैं।

भगवान सूर्य पृथ्वी सहित संपूर्ण लोकों की आत्मा हैं जो इस पृथ्वी और अंतरिक्ष के बीच स्थित आकाश मंडल के भीतर कालचक्र बनकर बारह महीनों के रूप में निरंतर चलायमान हैं, इनमें प्रत्येक महीना चंद्रमान से शुक्ल और कृष्ण इन दो पक्षों का होता है, प्रत्येक पक्ष में पंद्रह दिवस होते हैं। आकाश में भगवान सूर्य अपने पथ का आधा हिस्से जितने समय में तय करते हैं उसे एक अयन कहते हैं।

सूर्य की गति को समझने के सन्दर्भ में भागवत कथा में एक श्लोक आता है जिसमें कहा गया है कि जैसे कुम्हार के घूमते हुए चाक पर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदि की गति उस चाक से बिल्कुल भिन्न ही होती है क्योंकि वह चींटी भिन्न भिन्न समय पर चाक के भिन्न भिन्न स्थानों पर देखी जाती है उसी प्रकार से ग्रह-नक्षत्र और राशियों से जुड़े इस कालचक्र में घूमने वाले सूर्य की गति वास्तव में अन्य ग्रहों से भिन्न ही है।

यथा कुलालचक्रेण भ्रमता सह भ्रमतां तदाश्रयाणां पिपीलिकादीनां गतिरन्यैव…..।।

सनातन जीवन पद्धति से जुड़ी पौराणिक गाथाएं आत्मभाव की प्रधानता के साथ मनुष्य के प्रज्ञाचक्षुओं को जागृत करती हैं, इसमें सांकेतिक शब्दों में जीवन-संसार-सृष्टि और ब्रह्मांड की गति का रोचक वर्णन पढ़ने को मिलता है जिसमें अत्यंत सरल और सरस शब्दों में विज्ञान ही विज्ञान भरा पड़ा है।

सभी मनुष्यों के लिए इसके दरवाजे सदा ही खुले रखे गए हैं। जो लोग कहते हैं कि भेदभाव बरता जाता था तो उन्हें भागवत कथा के आयोजन के सन्दर्भ में उल्लिखित नियमों को पढ़ना चाहिए क्योंकि श्रीमद्भागवत महापुराण कथा के सार्वजनिक आयोजन को धर्मशास्त्रों में भी शास्त्रीय वचनों के अनुसार सबसे अधिक महत्व दिया गया है। इसके आयोजन के लिए जो नियम बताए गए हैं उससे जुड़ा एक श्लोक देखिए-

देशे देशे तथा सेयं वार्ता प्रेष्या प्रयत्नतः, भविष्यति कथा चात्र आगन्तव्यं कुटुम्बिभिः।।
दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे चाच्युतकीर्तनाः, स्त्रियः शूद्रादयो ये च तेषां बोधो यतो भवेत्।।

श्रीमद्भागवत महापुराण के इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि -जहां भागवत कथा का आयोजन हो वहां के स्त्री-पुरुष समेत सभी परिवार इसमें सम्मिलित किए जाने चाहिए। शूद्र समाज के उन लोगों को जो कथा-संकीर्तन से दूर हैं उन्हें विशेष रूप से आमंत्रण भेजना चाहिए। और सभी के भोजन निवास का यथायोग्य प्रबंध करना चाहिए।

 लेखकराकेश उपाध्याय
( देश के विभिन्न समाचार संस्थानों में आप कार्यरत् रहे,
वर्तमान में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़े हैं )