वाराणसी फ्लाईओवर हादसा : बिना पढ़े टिप्पणी न करें, सादर

एनटी न्यूज़ डेस्क / वाराणसी /रुपेश पाण्डेय (वरिष्ठ पत्रकार)

यह कोई पहली घटना नहीं है । पहले भी घटनाएं हुईं और आगे भी होने की संभावनाएं हैं, ही। लेकिन यह अपने प्रकार की पहली घटना है, जब समाज हमेशा की तरह सरकार से पहले मदद के लिए पहुँच गया लेकिन लाचार खड़ा रहा । सरकार जब पहुंची तो वह भी घंटों लाचार ही खड़ी रही। क्यों, यह सोचने का विषय है।

कहने के लिए कुछ भी कह सकते हैं, संसाधन की कमी थी, भ्रष्टाचार का परिणाम है,अफसरों की लापरवाही है, आदि..आदि। लेकिन क्या इतना ही सच है। वो जिंदगियां बचायी जा सकती थीं जो घंटों मदद के इंतज़ार में थी और लोग सामने मदद के लिए खड़े थे फिर भी उन्हें बचा नहीं पाए। और उस कहावत को चरितार्थ होते देखा कि “मैंने मौत को अपनी आँखों से देखा है”। जिनका जीवन समाप्त हुआ उनके परिवारों को सांत्वना देने के लिए हम भले ही कहें कि यही नियति थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । दरअसल वो घंटों जिंदगी की आस में तिल-तिल कर इसलिए मर गए कि उनके ऊपर विकास का ऐसा भारी बोझ था जिसे चाहकर भी कोई हटा नहीं पाया ।

वाराणसी

हमने क्या कभी ऐसा सोचा कि भौतिक विकास का क्या केवल यही एक मॉडल बचा है, जिसमें ऊँची अट्टालिकाएं, बड़े पुल, फ्लाईओवर,मॉल आदि ही होंगे। इनके बिना जिंदगी की गाड़ी नहीं चलेगी और हम पिछड़े कहलायेंगे। कोई मेरी इन बातों पर कह सकता है मौत तो कहीं भी आ सकती है उसके लिए विकास के मॉडल पर क्या दोषारोपड़ करना ? तब मैं कहुंगा, नहीं अब वह समय आगया है जब सवाल उठा कर,उस पर चिंतन कर और इस मॉडल की समिक्षा कर अपना रास्ता फिर से चुन सकते हैं , जिसमें जीवन की सुरक्षा की अधिकतम गारंटी हो।

वाराणसी पुल हादसा : नैनों सेकेंड में हुए हादसे ने खड़े किये कई सवाल

ऐसा भी नहीं है कि हमारे पुरखों ने विकास का ऐसा कोई मॉडल नहीं खड़ा किया है, बस एकबार पलट कर देखने की जरुरत है। जिन्होंने ताजमहल बनाये, बनारस के पक्के महाल की ऊँची- ऊँची हवेलियों जैसे घर बनाये, पूरे देश में अनेक विशाल और भव्य किले बनाये, पहाड़ों पर, गुफाओं में हर जगह जीवन की कल्पना की वो कोई मूर्ख नहीं थे। गजब के इंजीनियर, वैज्ञानिक और डिजाइनर थे जिनकी कृति आज भी दुनिया देखने आती है। और, वो भी तब ये सब किया जब इतने कथित आधुनिक साधन नहीं थे। उन्होंने अगर ऐसे हत्यारे फ्लाईओवरों की कल्पना नहीं की तो केवल इसलिते नहीं की उस समय जरुरत नहीं थी, बल्कि इसलिए कि वो जानते थे ऐसी डिजाइनें अक्सर विनाश के रास्ते पर ले जाती हैं।

आज, हमने विकास की जो गति पकड़ ली है, दरअसल वह विनाश की गति है । इस विकास के मॉडल में सबसे पहले आदमी ने अपना ज़मीर बेचा है, क्योंकि जिसका ज़मीर जिन्दा होगा वह इस मॉडल को विकास का मॉडल नहीं मान सकता। और, जब आदमी एकबार अपना जमीर बेच देता है तब फिर वह, वही करता है जिसका परिणाम कल की बेबसी में देखने को मिला। हमारी राजनीति और ब्यूरोक्रेसी ने बहुत पहले अपना जमीर उन कथित पूंजीपतियों के हाथों बेंच दिया है जिनके बाजार के लिए यह मॉडल अत्यंत जरुरी है।

इस मॉडल में हम समाज की नहीं उन बाजारवादी शक्तियों की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं जिनके लिए इंसान की जिंदगी भी बाजार का एक सामान भर है। पिछली दो शताब्दियों में केवल एक महात्मा गांधी ही ऐसे व्यक्ति पैदा हुए जिन्होंने भारत की उस विकास नीति की तासीर को समझा जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण का विचार है। आइये, फिर से समझें और अपनी राह चुनें।

सभी मृतात्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि।