एनटी न्यूज़ डेस्क/लखनऊ/श्रवण शर्मा
आज हम बात कर रहे हैं गुलाम मुहम्मद उर्फ ‘द ग्रेट गामा’ के बारे में, जिनसा पहलवान भारत को दोबारा नहीं मिल सका. कई पीढियां गामा पहलवान का बस नाम सुनते ही बड़ी हुई हैं. भारत-पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों में कुश्ती ही मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन है, ऐसे में गामा पहलवान और दारा सिंह का नाम बच्चे बच्चे की जुबान पर रहता है.
ग्रेट गामा का जन्म अमृतसर, पंजाब में 1888 में हुआ था। वह एक प्रसिद्ध पहलवानों के परिवार से थे. उनके पिता अजीज और भाई इमाम भी अपने समय के प्रसिद्ध पहलवान थे. गामा में आत्म-सम्मान की भावना बहुत बलवती थी. वह दूसरे लोगों को जल्दी ही अपना मित्र बना लेते थे. भारतीय कुश्तीबाजी को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता व लोकप्रियता दिलाने का श्रेय गामा पहलवान को ही जाता है.
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गामा का मुकाबला और प्रसिद्धि
गामा का बचपन भारत पहवानी से शुरू हुआ जो उनके आखरी वक्त तक उनके साथ रही. गामा ने 1898 से लेकर 1907 के बीच दतिया के गुलाम मोहिउद्दीन, भोपाल के प्रताब सिंह, इंदौर के अली बाबा सेन और मुल्तान के हसन बक्श जैसे नामी पहलवानों को लगातार हराया. जब 1895 में उनका सामना देश के सबसे बड़े पहलवान रुस्तम-ए-हिंद रहीम बक्श सुल्तानीवाला से हुआ.
रहीम की लंबाई 6 फुट 9 इंच थी, जबकि गामा सिर्फ 5 फुट 7 इंच के थे लेकिन उन्हें जरा भी डर नहीं लगा गामा ने रहीम से बराबर की कुश्ती लड़ी और आखिरकार मैच ड्रॉ हुआ. इस लड़ाई के बाद गामा पूरे देश में मशहूर हो गए. सक्षम और आत्मविश्वासी, गामा 1909 में भारतीय चैंपियन बने और दुनिया को जीतने के लिए तैयार हो गए.
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भारत में अजेय होने के बाद गामा ब्रिटेन गए. वहां उन्होंने विदेशी पहलवानों को धूल चटाने का मन बनाया लेकिन लंबाई कम होने की वजह से उन्हें वेस्टर्न फाइटिंग में शामिल नहीं किया गया. तब उन्होंने वहन के सभि पहलवानों को खुली चुनौती दे डाली और कहा अगर कोई उन्हें हरा देता है तो वह उसे ईनाम भी देंगे और ब्रिटेन छोड़ कर वापस अपने देश चले जाएंगे. उस समय के चैंपियन स्टैनिसलॉस ज़बिश्को ने चुनौती स्वीकार कर ली और 10 सितंबर 1910 को फाइट हुई.
गामा ने ज़बिश्को को पहले ही मिनट में जमीन पर पटक दिया. दो घंटे पैंतीस मिनट तक मैच चला, लेकिन उसे ड्रॉ करार दे दिया गया. मैच दोबारा 19 सितंबर को हुआ और ज़बिश्को मैच में आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया. इस तरह, गामा वर्ल्ड हैवीवेट चैंपियन बनने वाले भारत के पहले पहलवान बन गए. गामा ने अपने जीवन में एक भी कुस्ती का मैच नहीं हारा.
हिन्दू-मुस्लिम एकता कि मिसाल हैं गामा
जब भारत आजाद हुआ और पाकिस्तान बना तो गामा ने पाकिस्तान को चुना और वो लाहौर की एक बस्ती में रहने लगें. चूंकि अमृतसर में उसका घर हिंदू परिवारों के बीच ही था, तो उसने लाहौर में अपने घर के आसपास के हिंदू परिवारों को निश्चिन्त कर दिया था कि बंटवारे के बीच फैलती नफरत की आग अगर इस बस्ती की तरफ आई तो वो खुद उनकी रक्षा करेगा.
एक दिन ऐसा हुआ भी एक मुस्लिम दंगाइयों की भीड़ उस बस्ती में आ भी पहुंची, इससे पहले कि वो हिंदू परिवारों पर हमला करती, गामा खुद उनके सामने अपने पहलवान साथियों के साथ खड़ा हो गया. भीड़ के एक मुस्लिम नेता ने गामा को धक्का दिया तो गामा ने उसे अपने एक घूंसे में चारों खाने चित कर दिया था, उसका हश्र देखकर भीड़ भाग गई. आजादी के बाद जो हिंदू परिवार पाकिस्तान से भारत जाना चाहते थे गामा ने अपने खर्च से उनका एक हफ्ते के राशन का इंतजाम किया और वहां से सुरक्षित निकाने में उनकी मदद की.
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गामा का अंतिम समय
गामा ता-जिंदगी हारे नहीं. उन्हें दुनिया में कुश्ती का सबसे महान खिलाड़ी कहा जाता है. पर बहुत दुःख की बात है की ऐसे महान खिलाड़ी का बुढ़ापा बेहद ग़रीबी में कटा. उनके पास अपने इलाज तक के पैसे नहीं थे तब हिंदुस्तान के घनश्याम दास बिड़ला जो कुश्ती प्रेमी थे और गामा की पहलवानी के मुरीद उन्होंने दो हज़ार की एक मुश्त राशि और 300 रूपये मासिक पेंशन गामा के लिए बांध दी थी. उसके बाद बड़ौदा के राजा भी उनकी मदद के लिए आगे आये थे.
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इसी तरह हिन्दुस्तान से गामा को मदद डी जाने लगी. पाकिस्तान में जब इस बात पर हो-हल्ला हुआ तब पाकिस्तान सरकार ने गामा के इलाज़ के लिए पैसे दिए. पर शुरुवाती समय में अच्छे से ईलाज ना होने के कारण लंबी बीमारी को झेलते हुए 1963 में उनकी मौत हो गई. जिस भार से गामा पहलवान वर्जिश किया करते थे, उस 95 किलो के भार को पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स म्यूजियम में आज भी सुरक्षित रखा गया है.
बड़ौदा के संग्रहालय में 1200 किलो का एक पत्थर आज भी रखा हुआ है जिसे 23 दिसम्बर, 1902 के दिन गामा ने थोड़े ही देर में उठा लिया. हैरानी की बात तो यह है की इसी पत्थर को उठाने में पच्चीस लोग लगे हुए थें. जिसे गामा ने अकेले उठा लिया था और कुछ दूर उसके भार के साथ चल कर भी दिखाया था.