एनटी न्यूज डेस्क / लखनऊ/ श्रवण शर्मा
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिला में रुधा नामक गांम में जन्मा एक भारत मां का वीर जवान जिसने 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान घायल होने के बाद भी दुश्मनों का चौथा बंकर कर दिया था तबाह। जी हां हम बात कर रहे हैं परमवीर चक्र विजेता मनोज कुमार पाण्डेय की।
बचपन से भाती थी सेना की वर्दी
यूपी के सीतापुर स्थित रुधा गांव में 25 जून 1975 को मनोज कुमार पांडे का जन्म हुआ। बचपन से ही उन्हें सेना की वर्दी लुभाती थी। वह अक्सर अपनी मां से देशभक्तों की कहानियों जानने की लिए उत्साहित रहते थे। वह तय कर चुके थे कि वह किसी भी कीमत पर सेना का हिस्सा बनेंगे।
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घर की स्थिति बेहतर होने के बावजूद बचपन के कुछ साल मनोज ने अपने गांव में ही बिताए। बाद में उनका परिवार लखनऊ आ गया था। यहां उनका दाखिला सैनिक स्कूल में काराया गया। मनोज शुरु से ही पढ़ने लिखने में मेधावी थे। बारहवीं के बाद उनके पास अपना करियर बनाने के लिए ढ़ेर सारे विकल्प थे, लेकिन उन्होंने सेना को चुना।
पहले ही कहा था ‘परमवीर चक्र जीतना है‘
मनोज कुमार पांडे से जब सेना में भर्ती के लिए इंटरव्यू में पूछा गया कि आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं तब उनका जवाब था कि वो परमवीर चक्र हासिल करना चाहते हैं। मनोज का जवाब सुनकर सब हैरत में पड़ गए थे। मनोज ने अपनी कही बात को सच साबित कर दिखाया। करगिल की जंग में खालुबार पोस्ट फतह में बलिदान देकर वो परमवीर चक्र का मेडल अपनी वर्दी पर सजा चुके थे।
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यह कहानी उनके आत्मबल को दर्शाती है
उनकी पहली तैनाती देश के सबसे संवेदनशील प्रदेश जम्मू कश्मीर में हुई थी। नौकरी के कुछ ही दिन हुए थे, तभी सीमा पर आतंकी घुसपैठ को रोकने लिए उन्हें अपने सीनियर के साथ सर्च ऑपरेशन में जाना पड़ा। इस सर्च ऑपरेशन के दौरान पहली बार उनका सामना दुश्मन से हुआ।
दुश्मन के साथ उन्होंने घंटों दो-दो हाथ किये थे। अंत में वह आंतकियों को मार गिराने में कामयाब रहे थे।यह उनके लिए बड़ी उपलब्धि थी, लेकिन वह इसको सेलीब्रेट नहीं कर सकते थे क्योंकि इस मुठभेड़ में उन्होंने अपने सीनियर अधिकारी को अपनी आंखों के सामने शहीद होते हुए देखा था।
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उनके लिए यह अंदर तक हिला देने वाली घटना थी, लेकिन मनोज पांडे विचलित नहीं हुए। शायद वह जानते थे कि यह शुरुआत है। उन्हें अभी ऐसे ढेर सारे पड़ाव देखने बाकी थे।
इस घटना के कुछ ही दिनों बाद मनोज को सेंट्रल ग्लेशियर की 19700 फिट ऊंची पहलवान चौकी पर तैनाती का आदेश दे दिया गया था। यह चौकी जहां मौजूद थी, वहां की परिस्थितयां सहज नहीं थी। वहां सर्दी का आलम यह था कि ज्यादा देर तक खड़ा तक होना मुश्किल था। मनोज के लिए यह एक कड़ी चुनौती थी, लेकिन मनोज घबराये नहीं। वह पूरे जोश, और जूनून के साथ अपनी पोस्ट पर अपने साथियों के साथ खड़े रहे।
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जब कमान मिली दुश्मन को खदेड़ने की
3 मई 1999, कारगिल युद्ध का संकेत मिल गया था। मई के महीने में शुरू हुए कारगिल युद्ध में शामिल हज़ारों जवानों में एक था, कैप्टन मनोज पांडेय गोरखा राईफल्स। ये वही रेजिमेंट थी, जिसके लिए हिटलर भी तरसता था। कहते हैं, कभी उसने कहा था, ‘अगर गोरखाओं की फ़ौज मुझे मिल जाए तो मैं पूरी दुनिया पर काबू पा सकता हूं।’
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कैप्टन मनोज पांडेय को इस पूरे ऑपरेशन विजय के दौरान एक नहीं कई मिशन में लगाया गया। और मनोज पांडेय एक-एक कर सब पूरा करता गया। 3 जुलाई को मनोज पांडेय को खालुबर हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क मिला। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि इस पूरे ऑपरेशन को रात के अंधेरे में अंज़ाम देना था।
हार नहीं मानी आखरी बंकर को भी ध्वस्त कर दिया
मनोज अपनी पूरी पलटन के साथ आगे बढ़े। लेकिन एक जगह स्थिति ऐसी आई जहां से पलटन को दो हिस्सों में बटना पड़ा। आधा हिस्सा दाईं ओर से बढ़ा और बाईं ओर से खुद कैप्टन पांडेय पूरी पलटन को लिए आगे बढ़े। कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकर खाली करते जा रहे थे। पहला बंकर बर्बाद करते हुए, मनोज ने आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन के दो लोगों को मार गिराया।
दूसरा बंकर बर्बाद करते हुए कप्तान ने दो और दुश्मनों को मार गिराया। लेकिन तभी तीसरे बंकर की ओर बढ़ते हुए, मनोज को कंधे और पैर में दो गोलियां लग गईं। लेकिन मनोज ने यहां भी हार नहीं मानी और अपनी पलटन को लिए आगे बढ़ता रहा। आखिरकार दुश्मन के चौथे और आखरी बंकर को भी ध्वस्त कर दिया।
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आखरी सांस के साथ शब्द थे ‘ना छोड़नु‘
शायद इस कप्तान ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जी ली थी। गोलियां लगने से जख्मी हुआ कैप्टन मनोज पांडेय, शहीद हो गया। जाते-जाते इसके आखरी शब्द थे, ‘ना छोड़नु’, नेपाली में। जिसका मतलब होता है किसी को भी छोड़ना नहीं! और 24 साल का उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ देश का सिपाही शहीद हो गया। लेकिन जाते-जाते भी उसने अपनी ताकत दुनिया को दिखा दी थी।
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