एनटी न्यूज / लखनऊ डेस्क
राहुल जी की दादी जी के लिये चौधरी चरण सिंह ने कहा था “जिस दिन इंदिरा गांधी जौ और बाजरे में अंतर बता सकेंगी, मैं राजनीति से रिटायर हो जाऊँगा”. -के. विक्रमराव
राहुल जी ने हत्यारे आतंकी अज़हर को मसूद जी कह दिया. इस पर अनावश्यक बावेला उठ गया. प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री का काशी नागरी प्रचारणी सभा के शब्दकोश से कोई पाला तो पड़ा नहीं. न प्रयाग साहित्य सम्मेलन या देवघर विद्यापीठ से कोई साबका हुआ हो, जिससे पर्यायवाची या वर्तनी का सम्यक् बोध हो गया हो. मगर राहुल के सलाहकार तो “जी” शब्द के मायने समझते हैं, कि अल्ल (वंश) या पदवी के बाद जी लगाया जाता है, जो सम्मान और स्वीकृति का परिचायक होता है. अर्थात राहुल जी की जीभ फिसली नहीं है. बड़े अदब से उन्होंने आतंकी सरगना के नाम में जी लगाया है.
आख़िर वे अमेठी से सांसद हैं. लखनऊ कमिश्नरी का अमेठी भू-भाग है. इस अवध महानगरी में तांगे वाले को भी “आप” से सम्बोधित किया जाता है. अदब और शउर का यही तक़ाज़ा है.
अब यहां कुछ शत्रुजन की चर्चा कर लें. अंग्रेज़ी लेखक फ्रांसीसी क्वालिर्स ने कहा था कि मूर्ख का दिल उसकी ज़ुबान पर होता है. एक डॉक्टर भी ज़ुबान को ही जांच कर दिमाग़ी हालत जान लेता है. पर इन सब नियमों से राहुल जी परे हैं. अज़हर मसूद उनकी नज़र में सम्माननीय है, क्यूंकि उसके अपराध के सबूत नरेंद्र मोदी जमा नहीं कर पाये. अर्थात मसूद जी दोषी क्यूं कहलाएंगे?
राहुल जी के पिताश्री श्री राजीव जी ने इंडिया गेट के पास एक आम सभा में कहा था कि “उनको (दुश्मनों को) नानी याद दिला दूँगा”. हालांकि छटी का दूध अधिक माक़ूल होता. मगर बेटे की तरह ही राजीव जी का भाषा ज्ञान बहुत सीमित था. राहुल जी के चाचा जी, संजय गांधी जी ने कार्लटन होटल, लखनऊ (मार्च 1980) में कहा था. “कांग्रेस के कर्मचारियों को और कुशल होना चाहिये” अर्थात कर्मचारी और कार्यकर्ता में भेद नहीं जान पाये तो यह संजय गांधी के अध्यापक (यदि कोई था तो) की अक्षमता है. लखनऊ की इसी सभा में इसी सम्भावित प्रधानमंत्री संजय गांधी ने कहा था कि किसानों को खेत में अधिक चीनी पैदा करना चाहिये.
राजीव गांधी के असीम ज्ञान पर शरद जोशी में नव भारत टाइम्स में (सम्पादक राजेंद्र माथुर के समय) लिखा भी था, कि ग्रामीणों द्वारा समस्या बताये जाने पर प्रधानमंत्री ने सिंचाई विभाग को आदेश दिया था कि नदियों को किर्मिच की चादर से ढक दिया जाये ताकि गर्मियों में भी पानी भरा रहे. राहुल जी की दादी जी के लिये चौधरी चरण सिंह ने कहा था “जिस दिन इंदिरा गांधी जौ और बाजरे में अंतर बता सकेंगी, मैं राजनीति से रिटायर हो जाऊँगा”. अर्थात दादी और पिता की बुद्धिमत्तता का सम्यक् निर्वाह करते हुए “जी” लगा कर मसूद को राहुल जी ने मौन स्वीकार्यता दे दी, तो कौन सा आसमान टूट पड़ा?
इस संदर्भ में प्रियंका गांधी वाड्रा की घटना ताज़ी हो जाती है. रायबरेली की चुनावी सभा में अविरल हिंदी में बोल कर उन्होंने ग्रामीण श्रोताओं से पूछा था “क्या मैं विदेशी लगती हूँ”? जवाब था “बिलकुल नहीं”.
राहुल जी अभिव्यक्ति तथा शब्द चयन में अपनी अनुजा के मुक़ाबले पिछड़े लगते हैं. अतः उनके समर्थक राहुल जी के लिये आरक्षण की मांग उठा सकते हैं.
तुलनात्मक रूप से सागर तटीय पश्चिम भारतीय अहिंदी भाषी नरेंद्र दामोदरदास मोदी अगड़े दिखाई देते हैं.
फ़िलहाल यहां प्रश्न अगड़ा-पिछड़ा का नहीं है, वरन इल्म और शिक्षा का है. पैराशूट से राजनीति में उतरे हुए नेता लोग ऐसी हालत पैदा कर रहे हैं जिससे भारत का भूगोल बिगड़ेगा, इतिहास भी. उत्तरदायित्व वोटरों पर है कि नासमझ और जड़मति के भरोसे राष्ट्र का भविष्य कभी न छोडें. वरना तब तक एक जघन्य हत्यारा आदरणीय ही कहलाता रहेगा. उसके नाम के अंत में जी ही लगता रहेगा.