एनटी न्यूज / लखनऊ डेस्क
राहुल गांधी ने सही आंका. नरेंद्र मोदी बुजदिल निकले. उनका चौड़ा सीना बस दिखावा मात्र है. राहुल जी के “मसूद जी” वाले मसले पर चीन के शी जिनपिंग से मोदी खौफ खा गये. हालांकि राहुल ने याद कराया कि ये दोनों राष्ट्रनायक साबरमती तट पर साथ झूला झूल चुके हैं. आगोश में आबद्ध हो चुके हैं. फिर भी आतंकी मसूद से कहीं अधिक शी जिनपिंग से मोदी डर गये. राहुल भूल गये कि उनकी दादी के पिताश्री जवाहरलाल नेहरु के जितने करुणामय मोदी नहीं हो सकते हैं. घटना है 25 अक्टूबर 1962 की. तब माओवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का प्राथमिक सदस्य बनाने की पुरजोर पैरवी हेतु नेहरु ने भारतीय प्रतिनिधियों को सख्त निर्देश दिया था. सिवाय सोवियत रूस के सारी महाशक्तियां चीन का विरोध कर रही थीं. मगर उसी दिन पंद्रह हजार किलोमीटर दूर नेफा (अरुणाचल) पर जनवादी चीन की जनमुक्ति सेना अपना कब्ज़ा कर गुवाहाटी की ओर बढ़ रही थी. तब भी नेहरू की विदेश नीति पर चीनी हमले का लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा.
आज मीलों अलग रहे पाकिस्तान और लाल चीन परस्पर सड़क मार्ग से जुड़ गए हैं तो इस विलक्षण इंजीनियरिंग का समूचा श्रेय जवाहरलाल नेहरू को जाता है.
इतने करुणामय थे राहुलजी के ये पुरखे! उसी वक्त एशिया और अफ्रीका के कई राष्ट्रों ने भारतीय राजदूत को समझाया कि हमलावर जब सीमा से पीछे हट जाय, तभी चीन को संयुक्त राष्ट्र में भर्ती करने की मांग उठायें. मगर मोदी जैसे निष्ठुर और निर्भीक तो नेहरू थे नहीं. उनकी छवि थी शांति के मसीहा, धवल कबूतर उड़ानेवाली, अहिंसा के उपासक वाली! अतः मोहम्मद बिन कासिम से माओ जेड़ोंग तक विदेशी आक्रमणों को भारत सहता ही रहा. भारत भूमि पर आक्रान्ताओं का सिलसिला लम्बाता गया. कांग्रेस सरकार ने भी सहा. नेहरू ने असम कटवा दिया. लद्दाख और कश्मीर बंटवा दिया. अर्थात् यदि आज मीलों अलग रहे पाकिस्तान और लाल चीन परस्पर सड़क मार्ग से जुड़ गए हैं तो इस विलक्षण इंजीनियरिंग का समूचा श्रेय जवाहरलाल नेहरू को जाता है. एक और दरियादिली नेहरू ने दिखाई. आजादी के तीन वर्ष बाद अमेरिका, फ्रांस आदि देशों ने एशिया को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता देने की पेशकश की. भारत का नाम था. चीन तब तक बीजिंग और ताईवान में विभाजित हो गया था. पर नेहरू ने कहा चीन प्रगाढ़ सुहृद है. इसे ही यह सीट मिले. मगर आज भारत संयुक्त राष्ट्र से चिरौरी कर रहा है कि उसे छठी सीट दिलवायें.
लौटें राहुलजी के “मसूद जी” वाले मुद्दे पर. मान लें कि मोदी की छाती पर कई सिलवटें शी जिनपिंग ने धौंसिया कर डाल दी हैं, तो भी भारी भरकम पगड़ीधारी, ऊंचे कदवाले सरदार मनमोहन सिंह अपने राजकाल (2009) में संयुक्त राष्ट्र में इसी अजहर मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित करानेवाला प्रस्ताव पारित क्यों नहीं करा पाये? उस दौर में इस “इत्तिफाकन वजीरे-आजम” का रिमोट कण्ट्रोल तो दस जनपथ में था. राज भी मां और बेटे का था!
लेकिन इन सब से कहीं अधिक गंभीर और त्रासद बात है कि राहुल गांधी को दुश्मन से बहुत याराना है. आखिर इतनी ललक क्यों पड़ गई? जब भूटान के समीप डोकलाम पर चीनी सैनिक भारतीय जवानों से भिड़े थे तो मोदी का निर्देश था कि एक इंच भू-भाग भी नहीं छोड़ेंगे. चीन समझ गया कि हिन्द की सेना का सीना छप्पन इंच का ही है. तभी राहुल गांधी चीन के राजदूत के डेरे पर जीमने गये थे. यही जनेऊधारी प्रतीक्षारत प्रधानमन्त्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा की आड़ में चीन-अधिकृत तिब्बत में शी जिनपिंग के मंत्रियों से पींगें लड़ा रहे थे. सियासत और अकीदत का यह नया प्रयोग था.
राजनीति में शिक्षाप्राप्त होना अब वैकल्पिक हो गया है. हालांकि प्रियंका ने गांधीवादी नैतिकता और शुचिता की बात जरूर की.
एक करिश्मा राहुल ने और कर दिखलाया. मोदी ने कहा कि वह पाकिस्तान में घुसकर मारेंगे. राहुल गांधी ने मोदी के घर में घुसकर वार किया. गुजरात में पार्टी अधिवेशन चार दशक बाद रखा. उनकी स्ट्राइक कितनी सर्जिकल रही? वे अहमदाबाद की सभा में बोले कि “समूचा विपक्ष एक होकर लड़ेगा” (10 मार्च). उसी शाम को मायावती का बयान आया कि देश में कहीं भी राहुल-कांग्रेस के साथ समझौता नहीं होगा. बिहार के आर.जे.डी. नेता शिवानन्द तिवारी का ऐलान था कि उनकी पार्टी की चुनावी राह अलग है. प्रतिक्रिया में बिहार विधान मंडल कांग्रेस दल के नेता सदानंद सिंह ने कहा “हम कांग्रेसी अब किसी दल अथवा गुट के मोहताज नहीं हैं”.
तब तक शेरनी-ए-बांग्ला ने प्रदेश की सभी 42 लोकसभा सीटों पर अपनी तृणमूल-कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित कर दिये. ज्योतिरादित्य सिन्धिया का ऐलान हुआ कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सभी सीटें खुद लड़ेगी. दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को धता बता दिया. आंध्र में तेलुगु देशम और वाई. एस. आर. कांग्रेस ने तय किया कि आपस में टकरायेंगे, पर राहुल कांग्रेस का निशान भी नहीं छोड़ेंगे. महाराष्ट्र विधान मंडल कांग्रेस पार्टी के नेता राधाकृष्ण विखे-पाटिल के सुपुत्र संजय अहमदनगर से भाजपा के संसदीय प्रत्याशी बन गये. यह सब एक ही बेला पर हुआ.
इसी परिवेश में अड़तालीस-वर्षीया “युवा” कांग्रेसी नेत्री प्रियंका वाड्रा का भी उल्लेख हो जाय. गांधी कुलनाम की लाभार्थी प्रियंका पहली बार साबरमती आश्रम पधारीं. अदालज (गांधीनगर) की जनसभा में वे बोलीं, “यहां आकर आंसू आते हैं कि इन भाजपाइयों ने भारत की क्या दुर्दशा कर डाली है?” अपने सात मिनट के उद्गार में पार्टी की नीतियों का उन्होंने क्या निरूपण किया होगा? यह श्रोता भी शायद ही समझ पाये हों. राजनीति में शिक्षाप्राप्त होना अब वैकल्पिक हो गया है. हालांकि प्रियंका ने गांधीवादी नैतिकता और शुचिता की बात जरूर की. अब उनकी राय अत्यन्त ग्रहणीय बनती तो है ही. क्योंकि आदर्श गृहणी सदैव पति की ईमानदारी से अत्यधिक प्रभावित रहती है. इसे मिसेज राबर्ट वाड्रा जानती हैं.