लखनऊ :आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुये , स्वतंत्रता दिवस की पचहत्तरवीं वर्षगांठ का जश्न , उत्सव और उमंग और भी खास हो जाता है , जब हम शौर्य और पराक्रम की गाथाओं में भारत माता की मिटटी में जन्मी वीरांगनाओं का योगदान और उनकी भूमिका जंग ए आज़ादी के परिप्रेक्ष्य में पढ़ते और देखते हैं। ऐसे साहित्य महत्वपूर्वं हो जाते हैं। ये आम जान को उनकी भाषा और संस्कृति की अनुभूति कराते हुये इतिहास की शौर्यगाथा और पराक्रम को न केवल दोहराते हैं अपितु आज की वीरांगनाओं की हौसला अफ़ज़ाई भी करते हैं।
ऐसे ही साहित्य में शामिल नाटककार रवीन्द्र प्रताप सिंह की कृतियां “चैन कहाँ अब नैन हमारे ” और ” झलकारी बाई “, वीरांगना ऊदादेवी और झलकारी बाई जैसे भारतपुत्रियों के स्वतंत्रता संघर्ष पर केंद्रित महत्वपूर्ण नाट्यकृतियाँ हैं। ” चैन कहाँ अब नैन हमारे” , लखनऊ के आस पास के गावों और स्वतंत्रता संग्राम की कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियों पर जगरानी ऊदा देवी के नेतृत्व में , जंग ए आज़दी की उस पृष्ठभूमि की गाथा है जो ऐतिहासिक सिकंदरबाग लखनऊ में 16 नवंबर 1857 को घटी। नाटककार रवीन्द्र लिखते हैं , “काले गणवेश में महिलायें ,हाथों में भाले बरछियाँ , कमर में कटार , ऊदादेवी के कंधे पर बंदूक है। “
यह स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी है , और एक अप्रतिम रण। अवध के परिप्रेक्ष्य में वह कहते हैं , ” निम्न उच्च का भेद नहीं, मजहब पंथों के पेंच नहीं।” नाटक “झलकारी बाई” में उन्होंने “दुर्गादल ” की छवि को उकेरा है। जनरल ह्यूरोज़ और झलकारी बाई के संवाद में झलकारी बाई का स्पष्ट सन्देश है – तत्कालीन औपनिवेशिक अत्याचारियों के लिए मौत का पैगाम। ये नाटक भारतमाता के लिए बलिदान हो गयी वीरांगनाओं के सम्मान में महत्त्वपूर्ण रचनायें हैं। नाटककार मानते हैं कि आज़ादी का अमृत महोत्सव वीरांगना झलकारी बाई , वीरंगना ऊदा देवी , वीरांगना अवंतीबाई जैसी , ऐतिहासिक महिलाओं के प्रति नमन और श्रद्धांजलि देने का अवसर है। इन्ही भावों से वे मुख्यधारा के साथ ही ऐतिहासिक हाशिये में पड़े चरित्रों को केंद्र में रखकर एक सीरीज पर भी कार्य कर रहे हैं ।