रिपु सूदन सिंह
आचार्य, राजनीति विज्ञान
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय
लखनऊ
काँग्रेस के एक नेता ने हिन्दुत्व को लेकर ऐसी बात लिखी है जिससे विवादास्पद-भ्रम पैदा हो गया। बोको हराम और इसिस (इस्लामिक स्टेट) के लोग अपने को इस्लाम मज़हब का रक्षक मानते है। अब प्रश्न्न उठता है कि क्या हिदुत्व मज़हब-रेलीजन है या फिर धर्म। अनेक लेखों और टीवी के डिबेट मे भी हिन्दुत्व को रेलीजन और मज़हब के रूप मे ही प्रस्तुत किया जा रहा है। विद्वान उक्त शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानकर कर बहस करते है। यदि किसी भी शब्द को लेकर भ्रम व्याप्त होता है तो उससे की गई सारी व्याख्याएं पूर्वग्रसित हो जाती है जिसकी परिणति सामाजिक तनाव और राजनीतिक हलचल मे होती है। यदि हिन्दुत्व इस्लाम-मज़हब या ईसाई-रेलीजन की तरह है तो फिर काँग्रेस के उक्त नेता के लेखनी से कोई विवाद नहीं होना चाहिए। पर यदि हिदुत्व मज़हब और रेलीजन नहीं है तो क्या यह धर्म है? यदि धर्म है तो इसे कैसे सिद्ध करेगे? धर्म की अपनी क्या विशेषताएँ है जिससे वह अभिव्यक्त होता है ? क्या धर्म का समय, काल और संदर्भ वही है जो मज़हब-रेलीजन का था? यदि नहीं तो धर्म उन दोनों से कैसे भिन्न है? क्या धर्म की मज़हब-रेलीजन से किसी प्रकार की तुलना बौद्धिक असक्षमता और संदिग्ध इरादे को व्यक्त करता है?
जहां रिलीजन का इतिहास 21 सौ साल का है वही मज़हब का 14 सौ साल । पर धर्म आदि-अनंत काल से है। वृहद तौर पर दुनिया मे दो विश्व-दृष्टि यथा भारत विश्व-दृष्टि और अब्राहमिकी विश्व-दृष्टि है। धर्म और उसकी वृहद अवधारणा भारत विश्व-दृष्टि से उत्पन्न होता है जिसमे धर्म की सनातनता और निरंतरता है। दूसरी ओर अब्राहमिकी विश्व दृष्टि से फेथ (विश्वास) उत्पन्न होता है। उपलब्ध प्रमाण के आधार पर देखा जाये तो धर्म का इतिहास मोटे तौर पर पाँच हजार सालों का है जो तथ्य और प्रमाण की उपलब्धता पर और भी पुराना हो सकता है। वही पर रेलीजन-मज़हब का इतिहास तीन हजार सालों मे सिमटा है। धर्म का प्रादुर्भाव भारत की भूमि मे हुआ है जिसकी सनातनता (परपेटुइटी) आदि-अनंत सालों से चली आ रही है। वही पर रेलीजन-मजहब की परंपरा की शुरुआत इस्राइल मे अब्राहम के द्वारा की गयी। अब्राहम यहूदी, ईसाई और इस्लाम् रेलीजन-मजहब के वंश और रेलीजन का प्रधान (पेट्रीयार्क) थे और उनकी पहली कुलीन पत्नी सारा से उत्पन्न दूसरे बेटे इसाक ने यहूदी रेलीजन को शुरू किया वही पर निम्न स्टेटस से संबन्धित दूसरी पत्नी हैगर से उत्पन्न पहला पुत्र इस्मैल था जिससे अरबों का वंशज निकलता है। 7 वीं सदी मे मुहम्मद इब अब्दुल्लाह अल हासिम जिन्होने अपने आप को 610 ईसवी मे पैगंबर घोषित किया था, ने अरब मे इस्लाम-मज़हब की शुरुआत की। इसके पूर्व प्रथम सदी मे यहूदियों मे से ही ईसा उत्पन्न होते है, जो अपने को गॉड का पुत्र घोषित करते है, उनके अनुगामियों ने उन्हे गॉड का अंतिम मसीहा घोषित किया, जिसे यहूदियों ने नहीं माना। यहूदियो का ईसा को गॉड का पुत्र न मानने के पीछे उनका रिलीज्यस फेथ था जिसमे यह कहा गया कि गॉड सुप्रीम है और उसको इस पृथ्वी पर कोई और रिप्रेसेंट नहीं कर सकता और न ही ईसा गॉड के अंतिम मसीहा (मेसेंजर) ही है। इन्ही रेलीजियस विश्वास के चलते यहूदियो के दवाब मे ईसा को रोमन सैनिकों ने सूली पर चढ़ा दिया और इस तरह ईसाई रेलीजन की शुरुआत हो गयी और ईसा को क्राइस्ट कहा गया। क्राइस्ट का अर्थ होता है मसीहा या पैगंबर।
यदि दोनों विश्व-दृष्टियों के बीच के प्रमुख अंतर को समझ लिया जाये तो दुनिया की किसी भी वैचारिकी को आसानी से समझा जा सकता है। भारत विश्व-दृष्टि की प्राचीनता और उसमे नित होते परिवर्तनों के चलते उसकी एक अलग पहचान बनी है। इस प्रकार जहां इसमे धर्म की केंद्रीय भूमिका है, वहीं पर अब्राहमिकी विश्व दृष्टि में विश्वास (फेथ) की। भारत विश्व-दृष्टि मे जहा कहीं भी फेथ की चर्चा की गयी है वह आस्था के रूप में है जो धर्म का ही संवाहक है। इस प्रकार भारत विश्व-दृष्टि मे धर्म बहुदेववादी, बहुसंस्कृति, बहुभाषी, बहुकेंद्रीय, बहुपक्षी और बहुआयामी है। यहाँ ब्रह्म प्रत्येक कण मे है। धर्म सारे निर्देश प्रकृति और ब्रह्मांड से लेता है। यह स्वयं स्वतंत्र, उन्मुक्त, निर्द्वंद, अज्ञेय, सनातन और शाश्वत है। इसमे प्रश्न-प्रति प्रश्न, तर्क-वितर्क, मत-मतांतर, सहमति-असहमति संभव है। यह सत्य को समग्रता मे देखता है और उसका अतिक्रमण भी करता है। यह अंतिम सत्य नहीं वरन वृहद सत्य की बात करता है पर अंतिम सत्य की संभावना को भी नहीं नकारता। इस विश्व-दृष्टि मे धर्म को कोई भी किसी भी रास्ते से प्राप्त कर सकता है। यह वैज्ञानिक, डेमोक्रेटिक, समावेशी है जिसमे मेरे (वी) और तेरे (अदर) का भाव नहीं। यही कारण है कि भारत मे जो आया, उसका यहाँ स्वागत किया गया।
अब्राहमिक दर्शन परंपरा मे निश्चित फेथ (आस्था), एकेश्वरवाद (वन गॉड) प्रमुख है जिसमे एक पवित्र पुस्तक, स्वर्ग-नर्क, कयामत (डूम्स डे) और अंतिम निर्णय (फ़ाइनल जजमेंट ) की प्रमुख भूमिका है। यह आसमानी है और वहीं के निर्देशों से संचालित होता है। उसका विचार प्रोफेटिक (मसीहाई-पैगंबरी) है। इसमे गॉड-खुदा और उनके शब्द अंतिम सत्य है जिसमे कोई बदलाव ईशनिन्दा होगी। उनके फेथ के अनुसार दूर अतीत मे स्वर्ग निवासी एडम-इव (आदम-हौआ) ने प्रेम का पाप किया और दंड स्वरूप उन दोनों को इस पृथ्वी पर भेजा गया। पाप मुक्ति का एक ही स्थायी समाधान था कि भविष्य मे उनसे उत्पन्न बच्चे गॉड( खुदा) की सारी बातों का अक्षरसः पालन करते रहे । फिर अंतिम न्याय के दिन गॉड-खुदा सभी इंसानों को उनके कर्मो के आधार पर निर्णय देगा जिससे वे पापमय जीवन से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाएगे। कर्म से उनका तात्पर्य बाइबल और कुरान के अनुसार चलना? इस प्रकार अब्राहम के द्वारा फेथ की एक बड़ी योजना तैयार की जाती और रेलीजन को राजसंस्था और उसके विस्तार के साथ जोड़ दिया जाता है। टेम्पोरल पावर (जमीनी ताकत) को आसमानी ताकत (डिवाइन पावर) के साथ बखूबी जोड़ दिया जाता और फिर राजसत्ता और रेलीजन-मजहब का एक पवित्र-अपवित्र गठबंधन तैयार हो जाता और उसे जनता को चर्च और मस्जिद के जरिये बाँट दिया जाता। इसी लिए यह संगठित भी है।
भारत विश्व-दृष्टि मे धर्म के केंद्र में मनुष्य, प्रकृति और समूचा ब्रह्मांड (यूनिवर्स) है। जैसे ही धर्म को रिलिजन, मज़हब या पंथ के रूप मे देखा जाता, धर्म की मूल चेतना समाप्त हो जाती है। धर्म को धारण करना पड़ता है वही पर रेलीजन-मजहब मे मत-परिवर्तन (कन्वर्शन) किया जाता है। धारयति या धर्म अर्थात धर्म को स्वयं के आचरण मे धारण करना पड़ता है जो न्याय (जस्टिस), सच्चाई, नेकी, साधुता (राइटटियसनेस) और शाश्वत-सार्वभौमिक मूल्यो यथा करुणा, प्रेम, सहचर्य के रूप मे उपलब्ध है। इसे व्यक्ति, पशु और वनस्पति जगत इसका आलिंगन स्वतः करता है न कि बल, लोभ-लालच के। भारतीय धर्म परंपरा सकारात्मक, अविनाशी और सनातन है। जहां धर्म का आलिंगन मनुष्य को सन्मार्ग पर ले जाता है वही उसका त्याग अधर्म और कुमार्ग पर ले जाता है । इसीलिए यहा सभी को धर्म धारण करना पड़ता है जैसे राज-धर्म, प्रजा-धर्म, अग्नि-धर्म, वायु-धर्म, जल-धर्म, नदी-धर्म, मेघ-धर्म, पृथ्वी-धर्म, पिता-पुत्र-पुत्री-बहन-भाई-पत्नी- धर्म। यह आचरण से जुड़ा है मात्र विश्वास से नहीं। दूसरी ओर पश्चिम और पश्चिम एशिया का अब्राहमिक दर्शन एकांगी, सीमित, पूर्वग्रहो से भरा दमनकारी, विस्तारवादी और उपनिवेशवादी है। जहाँ यह छल, बल और लालच पर विस्तारित होता है वही पर धर्म समूचे एशिया और अन्य देशो मे बिना किसी हिंसा के ही प्रचारित होता है। यह विचारणीय है कि समूचे विश्व मे सिर्फ अब्राहमिक विश्व-दृष्टि से उत्पन्न रेलीजन और मजहब ही शेष दुनिया पर धावा बोल उन्हे गुलाम बनाते है, अन्य नहीं। धर्म के अनुपालन से कल्पना और मनगढ़ंत फेथ के आधार पर विश्व को लूटने और गुलाम बनाने के काम मे बहुत रुकावट आती है।
यूरोप के ईसाई और यहूदियों ने 15-16वी सदी मे हुये रेनेसा-ज्ञानोदय, वैज्ञानिक-औद्योगिक क्रांति के दौरान ही अब्राहमिक रेलीजन से अपने को मुक्त किया और अपने देश के लोगो के लिए एक रेलीजन फ्री समाज (सेकुलर स्टेट) स्थापित किया और गॉड को मृत घोषित किया। पर जैसे ही उपनिवेशवाद की शुरुआत हुयी सेकुलर यूरोप के शासक ने अपने उपनिवेशों के स्थायित्व और सुरक्षा के लिए रेलीजन का प्रयोग किया और मिशनरी के जरिये चर्च निर्माण और कन्वर्शन को आगे बढ़ाया। पश्चिम एशिया की हालत तो बदतर बनी रही जिसमे किसी प्रकार का कोई रेनेसा और ज्ञानोदय नहीं हुआ। मज़हब के नाम पर किसी भी प्रकार का कोई सुधार आंदोलन नहीं चलाया गया। कुरान शरीफ़ को खुदा के अंतिम शब्द और आदेश के रूप मे देखा गया और उसका आँख बंद कर अनुकरण किया गया। ओट्टोमन एंपायर अपनी सीमाओं का विस्तार नहीं कर पाया क्योकि वह अभी भी मध्ययुगीन-सामंती-मजहबी विचारों से बंधा रहा और आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान से दूर रहा। यहाँ तक की इस सदी मे भी 2014 मे फिर से खलीफा की वापसी की काल्पनिक बात की गयी और अब 2020 मे टर्की का राष्ट्रपति एर्दुगान खलीफा और ओट्टोमन की पुरानी व्यवस्था की बहाली का झूठा आश्वासन दे रहें है।
भारत विश्व-दृष्टि मे व्याप्त धर्म की एक सनातनता है जो वेद, पुराण, उपनिषद, धर्मशास्त्र, महाभारत, रामायण, महावीर, बुद्ध, शंकर, कबीर, गुरुनानक से लेकर रामकृष्ण परमहंस, राहुल सांकृत्यायन से होता आंबेडकर के धर्म (धम्म) चिंतन मे निरंतर यात्रा कर रहा है। 1956 मे आंबेडकर अपनी पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ के माध्यम से भारत विश्व-दृष्टि की समझ को एक वैश्विक विस्तार देते। इस प्रकार धर्म का न तो प्रारम्भ है और न ही अंत। यह ब्रह्मांड के अस्तित्व के साथ आया, उसी के साथ जुड़ा है। यह इसी लिए आशावादी है। इसमे ईश्वर-परमात्मा गॉड या खुदा की तरह आसमान मे नहीं रहता, बल्कि वह इस ब्रह्मांड के यह कण कण मे बसता है। यह हर जीव-निर्जीव मे व्याप्त है। वह मनुष्य के आचरण के माध्यम से व्यक्त होता है। धर्म प्रत्येक युग मे विकसित होता है जो अपने को साहित्य, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, भवन-निर्माण कला, परंपरा, रीति रिवाज, तीज त्योहार, पाक-शास्त्र, बोलि-भाषा-लिपि, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ-चिकित्सा पद्धति, कर्मकांड, पूजा-पद्धति, लोकव्यवहार, लोकनीति, राजनीतिक व्यवस्था, विधि, संस्कृति, ज्ञान चिंतन परंपरा इत्यादि के माध्यम से व्यक्त करती है। भारत मे धर्म और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू है।
अब्राहमिक चिंतन परंपरा मे इस सृष्टि का प्रारम्भ और अंत निश्चयात्मक (डिटर्मिनिस्टिक) है और नकारात्मक-दुखांत (नेगेटिव-पेसिमेस्टिक ) है और आसमानी नियमो से संचालित होता है जिसको आज तक वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं किया जा सका है। धर्म मूल्य (वरचू) से चलता है, वही पर रेलीजन-मजहब फेथ से संचालित होता है और वरचू और फेथ के बीच फेथ के वर्चस्व को स्वीकार किया जाता है। भारतीय प्राचीन मनीषियों ने जब सर्व-धर्म-संभाव की बात की उससे उनका तात्पर्य भारत विश्व-दृष्टि मे व्याप्त विभिन्न धर्मों यथा हिन्दू, जैन, बौद्ध, सीख इत्यादि के बीच एक समझ और सहस्तित्व की अपील थी जिसका 20वी सदी मे गलत अर्थ निकाला गया और धर्म, मजहब और रेलीजन को एक सा कर दिया गया। भारत मे विगत एक हजार सालों मे इस्लाम और ईसाईत को भारतीयो के बीच धर्म के रूप मे प्रचारित किया गया। उसे अपनाने वाले भारतीयो ने भी उसे नया धर्म मानकर ही अपनाया न कि रेलीजन या मज़हब। यही कारण है कि वे अपनी जातिगत पहचान आज तक न छोड़ पाये। जैसे ही कोई इनमे अपना कन्वर्शन (मतपरिवर्तन ) करता है अचानक उसके चिंतन के केंद्र मे जेरूसलम-मक्का-वेटिकन हो जाता है और वह अपने देश मे बेगाना हो जाता है । मजहब के नाम पर दो राष्ट्र-सिद्धान्त का निर्माण किया गया जिसके चलते भारत विभाजन हुआ और पाकिस्तान-बांग्लादेश बना। मजहब-रेलीजन की समझ के आधार पर आज दुनिया मे झगड़ा और आतंक पसरा हुआ है। रेलीजन और मजहब का प्रचार किसी धर्म या मूल्यों के प्रचार के लिए नहीं किया गया बल्कि अपनी सत्ता, संख्या और मनगढ़ंत फेथ को बढ़ाने के लिए किया गया। अंत मे पुनः मूल प्रश्न्न पर वापस जाए तो पाएगे कि हिन्दुत्व हिन्दू-धर्म की ही अभिव्यक्ति है और इसका किसी विशेष पूजा-पद्धति, फेथ से कोई लेना देना नहीं। यह प्रकृति, ब्रह्मांड, जीवन, विवेक और मनुष्य केन्द्रित है। इस पर उचित दृष्टि विकसित कर अनावश्यक विवादों से बचा जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)