जानिए कैसे आज़ाद रहते हुए आज़ाद ने देश को आज़ादी दिलवाने में दी अपनी क़ुर्बानी

एनटी न्यूज़ / संपादकीय डेस्क / योगेश मिश्र

आज का दिन तब पावन हो गया था जब आज़ाद ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ का जन्म हुआ. उन्नाव में पंडित सीताराम तिवारी के घर 23 जुलाई 1906 को एक बालक ने जन्म लिया. कोई क्या जाने कि यह बालक सरफरोशी की तमन्ना रखने वाला होगा. पंडित जी अकाल पड़ जाने के कारण भाबरा गांव चले गए थे (जिसका अब चंद्रशेखर आज़ाद नगर हो गया है).

बचपन में सीखी सटीक निशानेबाजी

वहां इस छोटे बालक ने आदिवासियों के बच्चों के साथ खेल-खेल कर इतना सटीक निशानेबाजी सीख ली कि कोई भी निशाना खाली नहीं जाता था. समय बीतने पर यही निशानेबाजी काम आई सांडर्स का मस्तक उड़ाने में. एक ही गोली मारने पर सांडर्स भगवान को प्यारा हो गया था.

आज़ाद की एक दुर्लभ तस्वीर

तो आइए आपको उस आज़ाद के क्रांतिकारी जीवन के बारे में हम बता रहे हैं…

पिता सीताराम तिवारी मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गांव में बस गये. यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता. उनकी मां का नाम जगरानी देवी था. आज़ाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में बीता इसलिए बचपन में आज़ाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये. इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी. बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया. उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था. वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये. क्रान्तिकारियों का वह दल “हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ” के नाम से जाना जाता था.

इलाहाबाद स्थित आज़ाद पार्क में आज़ाद की स्थापित मूर्ति. यहीं शहीद हुए थे आज़ाद

चंद्रशेखर का नाम आज़ाद ऐसे पड़ा

जब 15 साल के आज़ाद को जज के सामने पेश किया गया तो उन्होंने ने कहा कि मेरा नाम आज़ाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा पता जेल है. इससे जज भड़क गया और आज़ाद को 15 बेंतो की सजा सुनाई गई. यही से उनका नाम पड़ा ‘आज़ाद’.

जलियांवाला बाग नरसंहार ने उद्वेलित कर दिया

1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया. चन्द्रशेखर उस समय पढ़ाई कर रहे थे. जब महात्मा गांधी ने सन् 1921 में असहयोग आंदोलन का फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भांति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये.

जलियांवाला बाग की अाभासी तस्वीर

अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली. इस घटना का उल्लेख जवाहर लाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है-

ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 15 या 16 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी. वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया. जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह ‘भारत माता की जय!’ चिल्लाता था. हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया. बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना.

जब आज़ाद बन गए हरिशंकर ब्रह्मचारी

चंद्रशेखर आज़ाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया. झांसी से 15 किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे. अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आज़ाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे. वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे. झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आज़ाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी.

जब गांधी जी ने अपना आंदोलन वापस ले लिया

असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चौरी-चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ  (एचआरए) का गठन किया. चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये. इस संगठन ने गांव के अमीर घरों में डकैतियां डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके.

जब राम प्रसाद बिस्मिल ने डांटा आज़ाद को

यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा. एक गांव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया. इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों (जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे) पर पूरे गांव ने हमला कर दिया. बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चांटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आज़ाद को डांटते हुए खींचकर बाहर लाये.

क्रांति में पैम्फलेटों ने निभाई थी अहम भूमिका

इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया. 1 जनवरी 1925 को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बांटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था. इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी. इश्तहार के लेखक के रूप में “विजयसिंह” का छद्म नाम दिया गया था. शचीन्द्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बांकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. एचआरए के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं – बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था.

जब बनी योजना सरकारी खजाना लूटने की

क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर शाहजहांपुर में हुई बैठक के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी थी. इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेंद्र लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी “आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन” को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया.

ट्रेन लूटने पर इतनों को हुई सजा

बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड सुनायी गयी. इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था.

योजना बनी कि जेल में बंद साथियों को छुड़ाया जाय

जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खां ने इसका विरोध किया था. उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी. अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं – पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 तथा उससे 2 दिन पूर्व राजेंद्र लोहिड़ी को 17 दिसम्बर 1927 को फांसी पर लटकाकर मार दिया गया. सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकड़े जाने से इस मुकदमे के दौरान दल प्राय: निष्क्रिय ही रहा. एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारणवश यह योजना पूरी न हो सकी.

4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया. इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया. इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये. पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन” का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन” रखा गया. चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला. इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया – “हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत.”

सांडर्स को अच्छी योजना के तहत भेज दिया ऊपर

17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को जा घेरा. ज्यों ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग़ दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा. भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार–छह गोलियां और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया. जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया. लाहौर नगर में जगह–जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया. समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस क़दम को सराहा गया.

जब फेंका गया केन्द्रीय असेंबली में बम

चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया. यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था. विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था. इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए. केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात् भगतिसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया. वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे.

मोतीलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास थे मुरीद

आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू और पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था. जवाहर लाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनंद भवन में हुई थी. जिसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में ‘फांसीवादी मनोवृत्ति’ के रूप में किया है. इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है. कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से 448 रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे.

सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर 1928-31 के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया. जबकि यह बात सच नहीं है. चंद्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह असेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी. साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की. आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे.

जब समय भी साथ न देने लगा…

आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवती चरण की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था. इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी. भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को महात्मा गांधी के पास भेजा जहां से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था. आज़ाद ने अपने बलबूते पर झांसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे. झांसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे. शालिग्राम शुक्ल को 1 दिसम्बर 1930 को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था.

एचएसआरए द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली असेम्बली बम काण्ड में फांसी की सजा पाये भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था. अन्य अभियुक्तों में से सिर्फ 3 ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की. 11 फ़रवरी 1931 को लंदन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई. इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति मांगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी.

चंद्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया. वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले. विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और नेहरू से उनके निवास आनंद भवन में भेंट की. आज़ाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे महात्मा गांधी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फांसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें.

… जब नेहरू ने नहीं सुनी कोई बात

नेहरू ने जब आज़ाद की बात नहीं मानी तो आज़ाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की. इस पर नेहरू ने क्रोधित होकर आज़ाद को तत्काल वहां से चले जाने को कह दिया तो वे भुनभुनाते हुए ड्राइंग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये. अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सीआईडी का एसएसपी नॉट बाबर जीप से वहां आ पहुंचा. उसके पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी. दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी हुई. कहते हैं उन्होंने कहा था मैं आज़ाद रहूंगा इसलिए वह अंग्रेजों की गोली से नहीं शहीद हुए. उन्होंने बची एक अंतिम गोली से खुद को मां भारती के धाम पहुंचा दिया. यह दुःखद घटना 27 फ़रवरी 1931 के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी.

…फिर उमड़ पड़ा पूरा शहर इलाहाबाद

पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चंद्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था. जैसे ही आज़ाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड़ पडा. जिस वृक्ष के नीचे आज़ाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे. वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियां बांध दी गयीं. लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे. समूचे शहर में आज़ाद की बलिदान की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया. शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे. लोग सडकों पर आ गये.

ऐसे किया गया आखिरी सलाम

आज़ाद के बलिदान की खबर जब कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम कांग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी. बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुंचा.

Chandrasekhar Azad nabbed by police in Alfred Park ; Allahabad ; Uttar Pradesh ; India 27- February-1931 (साभारः इंटरनेट)

अगले दिन आज़ाद की अस्थियां चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया. इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया. ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पड़ा हो. जुलूस के बाद सभा हुई. सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस के बलिदान के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा. उस सभा को कमला नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया. इससे कुछ ही दिन पूर्व 6 फ़रवरी 1931 को मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे.

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