राष्ट्रीय शिक्षा नीति- त्रिभाषा सूत्र की उपयोगिता को समझना बेहतर

न्यूज़ टैंक्स | लखनऊ

पीयूष द्विवेदी

इस वर्ष भारत सरकार नई शिक्षा नीति लाई जिसमें कक्षा 5 तक प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में किए जाने का प्रावधान है ।इसमें त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त एक और भारतीय भाषा के अध्ययन से भाषाई समरसता के साथ विभिन्न भारतीय भाषा और लिपिबद्ध ज्ञान राशि का विस्तार हो सकेगा लेकिन भारत में अंग्रेजी के समर्थक चाहे वह कांग्रेसी विचारधारा के हों या वामपंथी वे देश की भाषा संबंधी आवश्यकता के बारे में भारी संशय पैदा करने का प्रयास करेंगे।

वे इस तरह की भ्रांति फैलाने का प्रयास भी करेंगे कि अंग्रेजी भी भारत की अन्य भाषाओं के समान ही भारतीय भाषा है, क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो भारत की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी को बनाए रखना चाहते हैं । वास्तव में वे अपने हिंदी विद्वेष से ही प्रेरित हैं ,वे हिंदी के स्थान पर कोई भी अन्य भाषा स्वीकार कर लेंगे वह हर प्रकार के अनावश्यक तर्क देते हैं और अहिंदी भाषी जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं ।वह अपने क्षेत्र की जनता को यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि यदि अंग्रेजी हटा दी गई तो उनकी अपनी भाषा जीवित नहीं रह सकेगी लेकिन तथ्य यह है कि अंग्रेजी के विरुद्ध लड़ाई हिंदी वालों की लड़ाई नहीं है यह वस्तुतः भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं का एक सम्मिलित लक्ष्य है ।

यदि अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य को सुद्रण बनाने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण किया तो अंग्रेजी के समर्थक उस विदेशी भाषा को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए उसका अनुसरण कर रहे हैं ।यदि अंग्रेजी चली जाती है तो उसका स्थान अकेले हिंदी ही नहीं ग्रहण करेगी बल्कि, हिंदी और क्षेत्रीय भाषा संयुक्त रूप से ग्रहण करेंगी। यदि अंग्रेजी बनी रहती है तो भारत की कोई भी भाषा पल्लवित नहीं हो सकेगी। क्या वह हिंदी थी जिसने तमिल या बांग्ला को या अन्य भाषाओं को उनके संबंधित क्षेत्रों से अपदस्थ किया ।कोई ऐसा नहीं सोचता कि केरल में विधानमंडल या प्रशासन का कार्य मलयालम के बदले हिंदी में होगा किंतु मलयालम तब तक नहीं आ सकती जब तक अंग्रेजी हट नहीं जाती ।

यह सच है कि अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी ,अंग्रेजी का स्थान लेगी वह स्थान किसी भी अन्य भारतीय भाषा को दिया जा सकता है किंतु सुस्पष्ट कारणों से हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में उपयुक्त माध्यम माना गया है, वस्तुतः संविधान स्वीकृत होने के बहुत पहले से ही उसे यह स्थान प्राप्त था। संस्कृत यदि विद्वानों और भद्र पुरुषों की संपर्क भाषा थी तो सामान्य लोगों की संपर्क भाषा हिंदी थी मध्य काल के साधुओं ने इसका खुलकर और बारंबार प्रयोग किया ,उन लोगों द्वारा रचित अनेक हिंदी कविताएं हमें मिलती हैं यद्यपि उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी ।

हमारे सुदिर्घा स्वतंत्रता संघर्ष काल में हिंदी अंतर संपर्क का स्वाभाविक माध्यम थी ।भूषण ने छत्रपति शिवाजी पर हिंदी में काव्य रचना की ,गुरु गोविंद सिंह ने अपने अनुयायियों को हिंदी में उपदेश दिए ,1857 में अंग्रेजों को भगा देने की योजना हिंदी के माध्यम से बनी, स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदी के माध्यम से ही राष्ट्र का तेजस्विता पूर्ण आवाहन किया ,गांधीजी ने अंग्रेजो के विरुद्ध शांतिपूर्ण विद्रोह के निमित्त सुदृढ़ करने की दृष्टि से जनता को उत्साहित करने के लिए हिंदी को ही उचित माध्यम माना। हमारे स्वतंत्रता संघर्ष में भाषा ने उतना ही योगदान किया जितना उसने आयरलैंड में किया था।

हमारे संविधान में हिंदी को परंपरागत रूप से सुप्रचलित नाम राष्ट्रभाषा के बदले राजभाषा नाम दिया गया तो उसका उद्देश्य अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के बारे में केवल कुशंकाएं दूर करना ही था और यह प्रकट करना भी था कि वह सब भी समान रूप से राष्ट्रीय है। राष्ट्रीयता एक गुण प्रधान कल्पना है ,परिणाम प्रधान नहीं । यदि हमारे राष्ट्रीय जीवन का आयोजन और मार्गदर्शन अंग्रेजी में निहित आदर्शों के अनुसार होता है तो यह हमारी मानसिक दासता का चिन्ह है ,जितने शीघ्र हम इससे मुक्ति पा ले उतना ही अच्छा होगा।इन आदर्शों का पालन और उन्नयन कर हम राष्ट्र स्वाभिमान नहीं पैदा कर सकते हैं ।हम पाश्चात्य के मार्गो और पद्धतियों का अनुसरण कर केवल उनका व्यापार कर सकते हैं ,अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं प्रकट कर सकते हैं ।जब तक अंग्रेजी चलती रहेगी है तब तक हम अपने सांस्कृतिक पुनरुद्धार की जीवनदायिनी मुक्त वायु में सांस नहीं ले सकते। आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान सीधे प्राप्त न कर सकने का जोखिम उठाकर भी हमें विदेशी भाषा के चंगुल से अपने को मुक्त कर लेना चाहिए। अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिम की नकल करके हम विश्व को जो कुछ दे सकते हैं उससे कई गुना अधिक मूल्यवान योगदान हम अपनी भाषाओं के द्वारा दे सकते हैं। यदि यह वास्तविक धरातल पर उतर सके तो इस नीति के द्वारा बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है वरना श्रेष्ठ से श्रेष्ठ नीति भी केवल विचारों तक ही सीमित रह जाए तो उसका कोई अर्थ नहीं, वैसे सही दिशा में जो कदम आगे बढ़ रहे हैं उनका स्वागत किया जाना चाहिए।

(पीयूष द्विवेदी कानपुर में एकेडमीशियन हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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