रसातल में धंसता रुपया

 एनटी न्यूज़ डेस्क लखनऊ

आज़ादी  के 71 साल बाद आज अगर भारत का कोई नागरिक एक डाॅलर खरीदने का मन बनाए तो उसे 72 रुपए खर्च करने होंगे। जबकि 1947 में देश आजाद हुआ तो उस समय 3.30 रुपया एक डाॅलर के बराबर था। यानी उस समय एक डाॅलर भारतीय रुपए से साढ़े तीन गुना मजबूत था जो आज बढ़कर 71 गुना से भी अधिक हो गया है। यानी कह सकते हैं कि डाॅलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रुपए के कमजोर होने से भारतीय अर्थव्यवस्था भी कमजोर हुई है। देश समृद्ध हुआ है और अर्थव्यवस्था लगातार छलांग लगा रही है। जो असल चिंता है वह यह कि तमाम प्रयास के बावजूद भी रुपए के गिरने का जो सिलसिला शुरु हुआ है वह थमने का नाम नहीं ले रहा। हर रोज डाॅलर की साख बढ़ रही है और रुपया रसातल में धंस रहा है।

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गौर करें तो रुपए के कमजोर पड़ने के दो प्रमुख कारण हैं। एक, निर्यात के मुकाबले आयात में वृद्धि और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय हालात। जब भी आयात और निर्यात का संतुलन बिगड़ता है तो रुपए के कमजोर होने की संभावना बढ़ जाती है। हाल के आयात-निर्यात के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो मार्च, 2018 में 2,78,296 करोड़ रुपए का आयात हुआ जबकि निर्यात 1,89271 करोड़ का रहा। तकरीबन हर महीने यहीं स्थिति रहती है। यानी कारोबारी घाटा बढ़ता जाता है। आयात में वृद्धि की बात करें तो इसमें कच्चे तेल का आयात सबसे प्रमुख है। किसी से छिपा नहीं है कि भारत अपनी जरुरतों का तकरीबन 80 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है। आज की बात करें तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में आग लगी हुई है। लिहाजा भारत को भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च करना पड़ रहा है। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ रहा है। आंकड़ों पर गौर करें तो दिसंबर, 2017 में भारत के पास 4,09,366 मिलियन अमेरिकी डाॅलर का भंडार था, जो अगस्त 2018 तक घटकर 4,01,293 मिलियन डाॅलर तक रह गया। कच्चे तेल के मौजुदा परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो उसके मूल्य में लगातार उठापटक जारी है। जून 2017 से जनवरी 2018 तक कच्चे तेल की कीमत औसतन भारतीय रुपए के अनुकूल रही। लेकिन फरवरी 2018 के शुरुआत से कच्चा तेल अपना खेल दिखाने लगा। उसकी कीमत 70 डाॅलर प्रति बैरल पार कर गयी और मई 2018 आते-आते 80 डाॅलर का आंकड़ा छू लिया।

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फिलहाल कच्चे तेल की कीमत 70 से 77 डाॅलर के बीच है। अगर अंतर्राष्ट्रीय हालात में सुधार नहीं हुआ तो कच्चे तेल की कीमतें और उछाल मारेंगी। इसलिए कि ओपेक देश जिन्होंने कच्चे तेल के उत्पादन में वृद्धि करने का आश्वासन दिया था वे अपनी प्रतिबद्धता पर खरा नहीं उतर रहे हैं। उन्होंने उत्पादन में वृद्धि नहीं की है। दूसरी ओर अमेरिका द्वारा ईरान पर सख्ती बढ़ने की संभावना प्रबल है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कच्चे तेल की कीमतें आसमान छुएंगी और भारत को अत्यधिक विदेशी मुद्रा खर्च करने के लिए तैयार रहना होगा। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का ही परिणाम है कि पिछले एक पखवाड़े में कच्चे तेल की कीमत में 7 डाॅलर प्रति बैरल से ज्यादा उछाल आया है। दरअसल प्रतिबंधों के कारण ईरान का तेल निर्यात घट रहा है। इसका सीधा असर भारत पर पड़ रहा है। यह तथ्य है कि भारत के लिए सऊदी अरब के बाद ईरान विगत दो वर्षों में कच्चा तेल उपलब्ध कराने वाला दूसरा सबसे महत्वपूर्ण देश बन गया है। चूंकि ईरान भारत से नजदीक है इसलिए परिवहन लागत भी अन्य देशों की अपेक्षा कम होता है। लिहाजा भारत ईराज को ज्यादा तरजीह देता है। लेकिन चूंकि ईरान पर अमेरिका के तेवर कड़े होते जा रहे हैं ऐसे में भारत को अतिशीध्र अपनी रणनीति बदलनी होगी। इसलिए कि यह आशंका है कि 4 नवंबर के बाद ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और गहराएगा और ईरान की मुश्किलें बढ़ेंगी। दूसरी ओर अमेरिका ने संबंधित देशों को भी ईरान को दी जाने वाली आर्थिक रियासतें रोक देने की सख्त हिदायत दी है।

गत माह पहले अमेरिका ने भारत को भी ईरान से अत्यधिक कच्चा तेल न खरीदने की बंदरघुड़की दी थी। उसका असर यह हुआ है कि अन्य देशों की तरह भारत भी जून माह से ईरान से कच्चा तेल की आयात को सीमित करना शुरु कर दिया है। आंकड़ों पर ध्यान टिकाएं तो मई, 2018 में भारत ईरान से 7 लाख बैरल कच्चा तेल रोजाना लेता था जो अब घटकर 6 लाख बैरल पर आ गया है। अब भारत को कच्चे तेल की पूर्ति बनाए रखने के लिए सुदूर देशों से आयात पर निर्भर रहना पड़ रहा है और परिवहन लागत बढ़ रही है। जहां एक ओर सुदूर देशों से आयात के कारण भारत को अत्यधिक विदेशी मुद्रा खर्च करना पड़ रहा है वहीं देश में भी तेल की कीमतें आसमान छूने लगी हैं। ईरान के अलावा पश्चिम एशिया की मौजुदा परिस्थिति भी भारतीय रुपए को कमजोर कर रहा है।

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यमन में सऊदी अरब की अगुवाई में गठबंधन सेना हूती विद्रोहयों के खिलाफ जंग छेड़ी हुई है। इससे सऊदी अरब में कच्चे तेल का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वह भारत समेत दुनिया के अन्य देशों को भी जरुरत के मुताबिक तेल का निर्यात नहीं कर रहा है। अन्य कारणों पर दृष्टिपात करें तो अमेरिका और चीन के बीच छिड़ा कारोबारी जंग भी भारत की मुश्किलें बढ़ा रहा है। दोनों देश एकदूसरे के उत्पादों पर नकारात्मक प्रतिबंध लगा रहे हैं। इससे परिस्थितियां तेजी से बिगड़ रही है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जोखिम और अनिश्चितता की स्थिति उत्पन हो गयी है। यह स्वाभाविक है कि भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा।भारत को कई तरह के उत्पादों के आयात के लिए पहले के बनिस्बत अत्यधिक डाॅलर खर्च करना पड़ रहा है। दूसरी ओर उसका प्रतिकूल प्रभाव निवेश पर भी देखने को मिल रहा है। अगर शीध्र ही रुपए की सेहत नहीं सुधरी तो निवेशकों की संख्या घट सकती है।

यहां ध्यान देना होगा कि कच्चे तेल के अलावा चिकित्सा उपकरणों समेत कई अन्य उत्पादों का भी भारत बड़े पैमाने पर आयात करता है। उस पर भी भारत को अब पहले की अपेक्षा ज्यादा डाॅलर खर्च करना पड़ रहा है। ऐसे में लाजिमी है कि डाॅलर के मुकाबले रुपए की सेहत बिगड़ेगी ही। हालांकि कुछ आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि डाॅलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने के नुकसान के साथ कुछ फायदे भी हैं। मसलन उत्पाद व उपकरण निर्यात करने वाली एमएसएमई को उत्पादों का ज्यादा पैसा मिलेगा। विदेशी ग्राहकों और साॅफ्टवेयर निर्यात से जुड़ी भारतीय साॅफ्टवेयर कंपनियों को पहले की अपेक्षा ज्यादा फायदा होगा। यही नहीं लंबे समय के अनुबंध करने वाली छोटी-छोटी कंपनियां ज्यादा मुनाफे में रहेगी। विदेशी पर्यटकों के लिए भारत घूमना सस्ता हो जाएगा जिससे विदेशी मुद्रा की आमद तेज होगी। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि महंगाई बढ़ने का खतरा बढ़ गया है।

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गौर करें तो रुपए के कमजोर होने से विदेश में पढ़ रहे साढ़े पांच लाख विद्यार्थियों का प्रभावित होना तय है। मौजुदा समय में भारतीय छात्र विश्व के तकरीबन 86 देशों में पढ़ रहे हैं। अकेले अमेरिका में ही भारतीय छात्रों की तादाद साढ़े तीन लाख से अधिक है। उनकी पढ़ाई का खर्चा डाॅलर में चुकाया जाता है। रुपए के कमजोर होने से अब भारतीय अभिभावकों को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों पर पहले की अपेक्षा 3 से 4 लाख रुपए अधिक खर्च करने पड़ेंगे। चिंता की बात यह भी है कि रुपए के कमजोर पड़ने और कच्चे तेल की कीमते आसमान छूने से महंगाई बढ़ने का खतरा बढ़ गया है। इस समय डीजल और पेट्रोल की कीमतें चरम पर है और उसका असर अन्य उत्पादों पर दिखने लगा है। हालांकि सरकार चाहे तो डीजल-पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी कम करके और राज्य सरकारों पर सेल्स टैक्स कम करने का दबाव बनाकर बढ़ती महंगाई पर बे्रक लगा सकती है। यह सच्चाई है कि केंद्र व राज्य सरकारें एक्साइज ड्यूटी और सेल्स टैक्स के नाम पर जबरदस्त वसूली करती हैं जिससे तेल उत्पादों का मूल्य उसके वास्तविक मूल्य के दोगुने से भी अधिक हो जाता है। आज की तारीख में देश के अधिकांश राज्य राज्य डीजल-पेट्रोल पर 30 से 40 प्रतिशत सेल्स टैक्स वसूल रहे हैं। उचित होगा कि सरकार टैक्स की दरें कम करे। साथ ही यह भी ध्यान रखे कि जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था को जापान की तर्ज पर निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था का स्वरुप नहीं दिया जाएगा तब तक रुपए पर डाॅलर की ग्रहण छाया बनी रहेगी।

 लेखक –   अरविन्द जयतिलक

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