एनटी न्यूज़ डेस्क /हरदोई/आशीष सिंह
भारतीय समाज पुरुष प्रधान कहा जाता है पर महिलाओं ने भी सदैव समाज को एक नई दिशा देने का कार्य किया हैं। ऐसी ही एक कहानी है । हरदोई में रहने वाली पूनम तिवारी की हैं। जो एक गरीब ट्रक ड्राइवर की बेटी होने के बावजूद संघर्ष करते हुए इस मुकाम पर पहुंची। जहां पहुंचने का ख्वाब हर कोई पालता है पर वह ख़्वाब मुक़र्रर कर पाना सबके बस की बात नहीं होती।
यह है प्रतिभा…
पूनम ने खेल को अपना कैरियर बनाया और फिर तमाम झंझावात को पार करते हुए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर तक खेल कर तमाम पदक जीते। देश प्रदेश और जिले का नाम रौशन किया. आज वे रेफरी और कोच के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है। और अब खुद न खेल कर उभरते हुए खिलाड़ियों को कोचिंग दे रही है साथ ही राष्ट्रीय स्तर की रेफरी भी हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : ‘महिला सशक्तीकरण की प्रतिबद्धता’
संघर्षशील खिलाड़ी की कहानी…
हरदोई की नई बस्ती मोहल्ले की रहने वाली पूनम तिवारी काफी गरीब परिवार से ताल्लुक रखती है। पिता ट्रक ड्राइवर थे ,बड़ी कशमकश में दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो पाता था। ऐसे में खेल के लिए अलग से धन जुटा पाना काफी कठिन था।
लेकिन पूनम ने हार न मानी और यह जीत का सिलसिला तब शुरु हुआ जब पूनम 6वीं क्लास में थी. बात सन्1987 की है, जब गंगा देवी इंटर कॉलेज में पूनम तिवारी पढ़ रही थी ।
उस दौरान उनके खेल के टीचर वीर बहादुर ने उन्हें रेस प्रतियोगिता में शामिल किया। 400 मीटर की डिस्ट्रिक्ट लेवल की प्रतियोगिता में पूनम को कांस्य पदक मिला और उसके बाद से ही उनका खेलों के प्रति रुझान बढ़ गया।
बनी कप्तान…
स्कूल को कांस्य पदक दिलाने के बाद उनके खेल अध्यापक ने उन्हें हॉकी टीम का कप्तान बना दिया। काफी समय तक हॉकी, बैडमिंटन रेस इन तमाम प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के बाद पूनम का सलेक्शन स्टेट लेवल पर सन 1993 में हुआ। और उन्हें लखनऊ जाना पड़ा लेकिन लखनऊ में उन्हें खेलने का मौका नहीं मिला जिसके बाद से उन्होंने हॉकी से सन्यास ले लिया.
टैलेंट छिपता नहीं…
हॉकी से सन्यास सन्यास लेने के बाद पूनम ने इंडिविजुअल गेम को अपना सहारा बनाया और उन्होंने वेटलिफ्टिंग की तैयारी शुरू की, क्योंकि उनके पिता पहलवानी का शौक रखते थे, लिहाजा पूनम को भी शौक जागा और वो लंबे वक्त तक वेटलिफ्टिंग करती रही।
पहली बार मिला गोल्ड मेडल…
उन दिनों स्पोर्ट्स स्टेडियम हरदोई में कुछ नहीं था लेकिन फिर भी वहां पर जाती और खुद से ही तैयारी करते हैं । 17 दिसंबर सन 1995 में मुरादाबाद में हुई प्रतियोगिता में 45 से 52 किलो भार उठाने में पूनम तिवारी को गोल्ड मेडल मिला. यह उनका प्रथम पुरस्कार था।
फिर क्या पूनम ने स्थापित किये कीर्तिमान…
इसके बाद पूनम का जो सफर शुरू हुआ उन्होंने फिर थमने का नाम नहीं लिया राज्य स्तर पर राष्ट्रीय स्तर पर कई मर्तबा लगभग दो दर्जन से अधिक उन्हें गोल्ड मेडल प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया. लेकिन आर्थिक दिक्कतों के चलते कभी भी पूनम तिवारी राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से आगे बढ़कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न पहुंच सकी. लेकिन वक़्त ऐसा भी आया जिसने पूनम की जिंदगी बदल कर रख दी ।
ऐसे पहुंची विदेश…
बात सन 2002 की है जब अंतर्राष्ट्रीय पावर लिफ्टिंग में पूनम तिवारी का सलेक्शन हुआ उस समय खिलाड़ियों को सारा खर्च का वहन अपने दम पर करना होता लिहाजा रुपए 65000 जो कि पावर लिफ्टिंग फेडरेशन में जमा होने थे. पूनम तिवारी ने सामाजिक संस्थाओं समाचार पत्रों तथा एनजीओ के माध्यम से सहारा लेकर 20000 रुपये चंदा किये. और उसके बाद अपना सब कुछ गिरवी रखकर 45000 रुपए और इकट्ठा किए और 65000 रुपए ले जाकर फेडरेशन में जमा किया.
जिसके बाद पूनम को साउथ कोरिया जाने का मौका मिला वहां पर पूनम को पहले गोल्ड मेडल और फिर 2 सिल्वर मेडल मिले.
भारत को उन्होंने सिल्वर मेडल दिलवाया वहां से लौटकर पूनम तिवारी ने बतौर कोच के हरदोई स्टेडियम में नौकरी शुरू की जिसके लिए उन्हें एक हज़ार रुपए मात्र का मानदेय मिलता था।
यह सिलसिला चलता रहा और फिर पूनम तिवारी धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई फिर उन्हें ऑल इंडिया पुलिस खेल में बतौर कोच के सलेक्ट किया गया.
उसके बाद उन्हें साउथ एशियन गेम्स 2016 में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर का गेम था जहां पर उन्हें बतौर रेफरी भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला.
आत्मत्या करने को हुई मजबूर, ज़िंदगी के न भूलने वाले पल…
पूनम तिवारी के स्पोर्ट टीचर वीरबहादुर बताते हैं कि पूनम तिवारी की जिंदगी में एक मोड़ कब आया जो न भूलने वाला था. जब पूनम तिवारी 10वीं की छात्रा थी तो ट्रक चालक उनके पिता सुरेंद्र कुमार तिवारी का एक्सीडेंट हुआ और उनका पैर फ्रैक्चर हो गया.
कई महीनों तक उनके पिता बेड पर पड़े रहे पालन पोषण करने वाले और पूरा परिवार चलाने वाले उनके पिता ही थे. लिहाजा अब घर में फाके होने लगे थे खेल तो छोड़िए अब तो दाने के भी लाले थे.
पूनम ज़िंदगी के उन कठिन रास्तों से गुज़र रही थी जिसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल था लिहाज़ा, पूनम ने अपनी जीवन लीला को समाप्त करने का मन बनाया.
लेकिन फिर उनके टीचर ने उन्हें समझाया , लिहाजा उस 10वीं की छात्रा ने ट्यूशन पढ़ा पढ़ा कर न सिर्फ परिवार का पालन पोषण किया बल्कि अपने पिता का इलाज करा कर अपनी पढ़ाई और खेल पर भी ध्यान दिया जो कि ना भूल पाने वाला पल पूनम तिवारी के लिए है ।
दो राहों में फंसी पूनम…
पूनम तिवारी बताती हैं कि सन 2002 में जब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने का मन बनाया. लेकिन वह आर्थिक रुप से कमजोर जरूर थी. उन्होंने साउथ कोरिया जाने का उन्होंने मन बना लिया था लिहाजा रुपए 65000 जो उन्हें जमा करने थे. उसको जमा करने के लिए को जुटी हुई थी इधर उनके पिता दिल की बीमारी हो गई लिहाजा उन्हें लारी कार्डियोलॉजी में भर्ती कराना पड़ा.
इधर वह चंदा इकट्ठा कर रही थी जो लोग तंज कस रहे थे कि ये खेलने नहीं जाएगी बल्कि यह पैसा अपने बाप के इलाज में लगाएगी पूनम उनके यह बोल भी सुनती रही. और आगे बढ़ी. जब पैसा इकट्ठा हो गया तो दो राहों में फस गई.
यह दो राहें यही थी कि वह अपनी मजिल पर चले कि अपने बीमार पिताजी की देख रेख करे.
भावनाओं को मजबूत कर मंजिल को चुना…
पिता की बीमारी पूनम की पारवारिक मोह माया थी. इसके बाद जब लोगों ने पूनम को समझाया हिम्मत दी तब वह अपने पिता को छोड़कर साउथ कोरिया के लिए रवाना हो गई. जहाँ उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत को सिल्वर मेडल जीत देश को गौरान्वित किया.
गाँव, घर, अस्पताल सभी को हुआ पूनम पर नाज…
सिल्वर पदक जीतने के बाद पूनम ने फोन से अपने पिता को बताया. तब उनके पिता अस्पताल में भर्ती थे. जैसे ही यह खबर पता चली वहां मिठाइयां बांटी गयी. खुशी की लहर दौड़ गई.
यही नहीं ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर ने उनके पिता से की फीस तक माफ कर दी। पूनम तिवारी ने बताया कि तब उनके पास इतने रुपये नही थे कि वे साउथ कोरिया में जीत के बाद ली गयी तस्वीर की एक फोटो भी निकलवा पाती ।
स्ट्रांग वुमन ऑफ नार्थ इंडिया का मिला खिताब…
इसके बाद 2002 में पूनम तिवारी को स्ट्रांग वुमन ऑफ नार्थ इंडिया किस खिताब से भी नवाजा गया |
समाज ने लगाए रोड़े पर नहीं रुके कदम…
पूनम तिवारी बताती है जब वे टी-शर्ट और हाफ पैंट पहन के स्टेडियम तैयारी के लिए जाया करती थी तो लड़के उन्हें छेड़ते थे. लिहाजा उनके भाइयों का कई बार उन लड़कों से झगड़ा हुआ तो कई बार उन्हें यह शब्द सुनने को मिला कि अगर इस तरह से स्टेडियम जाओगी तो लड़के छेड़ेंगे.
स्टेडियम जाकर कौन सा कैरियर बन जाता है यह बात उनके दिल में घर कर गई हालांकि समाज ने इस तरह की तमाम यातनाएं दी लेकिन मुझे इसी समाज को दिखाना था कि मेरी जो मेहनत है वह जाया नहीं जाएगी।
सबसे बड़ा अचीवमेंट…
पूनम तिवारी कहती है कि मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा अचीवमेंट यह है उत्तर प्रदेश में आज तक राष्ट्रीय स्तर की स्ट्रेंथ लिफ्टिंग चैंपियनशिप नहीं हुई लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद में राष्ट्रीय स्ट्रेंथ लिफ्टिंग चैंपियनशिप आयोजित कराई जिसमें 27 राज्यों से आए हुए लोगों ने हिस्सा लिया था|
सबसे बड़ा सहारा बने पतिदेव…
पूनम तिवारी बताया कि 1995 में जब वह लखनऊ में पहली बार प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पहुंची तो वहां पर उनकी मुलाकात राज धर मिश्रा से हुई जो कि उनके सीनियर थे और उन्होंने उनको बहुत मोटिवेट किया.
वह उनका सहारा बने उन्हें बराबर समझाते रहे कि किस तरह से आगे बढ़ना है, जिंदगी में पहली बार जब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने साउथ कोरिया मई 2002 में गई और वहां से भारत के लिए सिल्वर मेडल जीत के लाई तो वहां से वापस आकर बिना देरी किये सबसे पहले उन्होंने जून 2002 में राजधर मिश्रा के साथ सात फेरे ले लिए।