एनटी न्यूज़ डेस्क/ राजनीति
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उपचुनाव में करारी हार को भाजपा भले ही स्थानीय कहकर टाल रही हो, लेकिन पार्टी को अहसास हो गया है कि इसका असर व्यापक होगा. न सिर्फ संगठन और सरकार के स्तर पर कार्यशैली में बदलाव लाने होंगे, बल्कि गठबंधन के सहयोगी दलों का रुख पार्टी के लिए बड़ी चुनौती बनकर खड़ा हो सकता है.
आगामी 2019 चुनाव से पहले उपचुनाव में मिले संकेत से साफ है कि भाजपा को नई जमीन पर जीत के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि पुरानी जमीन न खिसक रही हो.
पिछले सभी उपचुनावों में परास्त हुई भाजपा
कुछ ही दिन पहले उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भगवा फहराया था. भाजपा के विस्तार की यह नई सीमा थी.
लेकिन पिछले कुछ महीनों में मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के कई उपचुनावों में भाजपा जीत हासिल नहीं कर पाई तो राजस्थान में बुरी तरह परास्त हुई. फूलपुर और गोरखपुर ने उस हार को बहुत बड़ा बना दिया.
दरअसल उत्तर प्रदेश, राजस्थान से कई मायनों में अलग है. राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार पांच साल पूरा कर चुनाव के मुहाने पर आ रही है. वहां नेतृत्व के खिलाफ जनता में रोष उफान पर है.
उन उपचुनावों में चिंता की बात यह थी कि कुछ बूथ पर भाजपा को एक भी वोट नहीं मिला था. यानी पन्ना प्रमुख और बूथ इंचार्ज तक ने भाजपा को वोट नहीं दिया था.
लेकिन उप्र में तो सरकार एक साल भी नहीं हुए पूरे
उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक जीत को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की संसदीय सीट सपा ने झटक ली.
वह भी उस प्रदेश में जिसने पूरे देश में जीत का माहौल तैयार किया. जाहिर तौर पर सपा और बसपा के अनौपचारिक गठबंधन ने भाजपा के विकास के झंडे को झुका दिया.
भाजपा के लिए चिंता की बात यही है कि चुनाव में विकास का एजेंडा भी गठबंधन की शक्ति से परे नहीं है.
बताते हैं कि बुधवार को आए नतीजे के तत्काल बाद उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडेय ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की.
बहुत जल्द दूसरे नेताओं को भी दिल्ली तलब किया जा सकता है. जमीन पर जाकर व्यक्तिगत संपर्क का अभियान तेज हो सकता है.
ध्यान रहे कि भाजपा अध्यक्ष ने 2014 से भी बड़ी जीत का लक्ष्य दिया है. लेकिन उसके लिए जरूरी है कि पैरों तले की जमीन ठोस रहे.
गठबंधन को जाता है जीत का श्रेय
उत्तर प्रदेश में सपा की जीत का बड़ा श्रेय गठबंधन को जाता है और विपक्ष इस फामरूले को ही धार देने की कोशिश करेगा इसमें संदेह नहीं.
ऐसे में भाजपा के सामने सहयोगी दलों को एकजुट रखना जरूरी होगा यह किसी से छिपा नहीं है. शिवसेना और टीडीपी के हाल के रुख जगजाहिर है.
ऐसे में दूसरे सहयोगी दलों का तेवर भी थोड़ा बदलेगा इससे इन्कार करना मुश्किल है. बिहार में जाहिर तौर पर भाजपा को जदयू के रूप में प्रभावी साथी मिला है, लेकिन माना जा रहा है कि 2019 लोकसभा चुनाव से पहले सीटों का बंटवारा मशक्कत का काम होगा.
एक डेढ़ महीने में कर्नाटक में चुनाव है और साल के अंत तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में. उससे पहले फूलपुर और गोरखपुर ने सतर्क कर दिया है कि जमीन की हर वक्त समीक्षा जरूरी है.