नहीं पता, सफ़र कहां तक है
“सफ़र कहां तक”
चल पड़ी हुं, इस ओर,
नहीं पता, सफ़र कहां तक है,
नहीं, ज्ञान मुझे कविता का
नहीं,ज्ञान मुझे छंद का
नहीं पता कोई नियम
बस चल पड़ी हुं,इस ओर
नहीं पता, सफ़र कहां तक है।
साथ लेकर कुछ शब्द,
ईश्वर के दिए कुछ भाव,
और साथ लिए
जीवन के कुछ अनुभव,
बस चल पड़ी हुं, इस ओर
नहीं पता, सफ़र कहां तक है ।
प्रयास यही है, जो भी लिखूं
सबके दिल को छू कर गुज़रे
सबकी रूह तक पहुंचे
बस चल पड़ी हुं, इस ओर
नहीं पता, सफ़र कहां तक है ।
कुछ ऐसा लिख जाऊं,
जो भी पढ़े, मोनिका
उसे उसकी कहानी दिखे
जो भी सुने, मंत्रमुग्ध हो जाए,
बार बार सुने,सुनता ही रहे,
बस , चल पड़ी हुं इस ओर
नहीं पता, सफ़र कहा तक है।।
मोनिका