पब्लिक ब्लॉग: खतरनाक है तापमान में वृद्धि- अरविंद जयतिलक

न्यूज टैंक्स/ पब्लिक ब्लॉग

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि इस सदी के अंत तक भारत के औसत तापमान में 4.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। रिपोर्ट से उदघाटित हुआ है कि वर्ष 1901 से लेकर 2018 के दौरान भारत के औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इस रिपोर्ट के आंकड़ों पर गौर करें तो देश में 1986 से 2015 की 30 साल की अवधि के दौरान वर्ष के सबसे गर्म दिन और ठंडी रात के तापमान में क्रमशः 0.63 डिग्री सेल्सियस और 0.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है।

अगर तापमान पर नियंत्रण नहीं लगा तो इस सदी के अंत तक गर्म दिन व ठंडी रात का तापमान का अंतर बढ़कर 4.7 डिग्री सेल्सियस और 5.5 डिग्री सेल्सियस हो जाएगा। रिपोर्ट में बढ़ते हुए तापमान के लिए मुख्य रुप से ग्रीन हाउस गैसों को जिम्मेदार ठहराया गया है। उल्लेखनीय है कि इस सरकारी रिपोर्ट को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के तहत आने वाले जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र द्वारा तैयार किया गया है। इस रिपोर्ट में उल्लिखित कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी ध्यान आकर्षित करने वाला है।

मसलन गर्मी में भारत में चलने वाली लू की आवृत्ति 21 वीं सदी के अंत तक तीन से चार गुना ज्यादा हो सकती है। हिंद महासागर के तापमान में भी वृद्धि होने की आशंका जाहिर की गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक हिंद महासागर का जलस्तर 1874 से 2004 के बीच प्रतिवर्ष 1.06 से लेकर 1.75 मिलीमीटर की दर से बढ़ा है जबकि बीते ढ़ाई दशक में यानी 1993 से 2017 में इसके बढ़ने की दर 3.3 मिलीमीटर प्रतिवर्ष रही। रिपोर्ट के मुताबिक अगर तापमान में वृद्धि जारी रही तो इस सदी के अंत तक उत्तरी हिंद महासागर में समुद्र तल का स्तर करीब 300 मिलीमीटर बढ़ जाएगा।

याद होगा अभी गत वर्ष पहले ही यूनिवर्सिटी आॅफ कोलाराडो के शोधकर्ताओं का ‘प्रोसीडिंग्स आफॅ द नेशनल अकादमी आॅफ साइंसेज’ में प्रकाशित शोध से भी उद्घघाटित हुआ था कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पिघलती बर्फ के कारण समुद्र का जल स्तर इस सदी के अंत यानी वर्ष 2100 तक वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान से दोगुने से भी अधिक बढ़ जाएगा।

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पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट पर गौर करें तो इसमें यह भी उद्घाटित हुआ है कि बढ़ते तापमान की वजह से भारत में मानसून के मौसम में भी 1991 से 2015 के बीच करीब 6 प्रतिशत की कमी आयी है और सबसे अधिक नुकसान गंगा के मैदानी इलाकों और पश्चिमी घाटों को हुआ है। बढ़ते तापमान की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूर्व-औद्योगिक समय से अब तक तापमान में केवल एक डिग्री सेल्सियस वृद्धि होने मात्र से पृथ्वी को कई गंभीर आपदाओं से जूझना पड़ा है।

इस दौरान हजारों लोगों की मृत्यू हुई है और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। वैज्ञानिकों की मानें तो औद्योगिकरण की शुरुआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक 45 वर्षों से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है।

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद आॅक्सीजन नाइट्रोजन के अनुपात पर एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से आॅक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है। एक अन्य आंकडें के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन आॅक्सीजन समाप्त हो चुकी है।

अगर यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होना तय है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। आज जब 40 डिग्री सेल्सियस की गर्मी मनुष्य सह नहीं पा रहा है तो समझा जा सकता है कि 60 डिग्री सेल्सियस वह कैसे बर्दाश्त कर पाएगा? नतीजा यह होगा कि सूर्य की किरणें कैंसर जैसे भयंकर रोगों में वृद्धि करेगी।

कहीं सूखा पड़ेगा तो कहीं गरम हवाएं चलेंगी। कहीं भीषण तूफान होगा तो कहीं बाढ़ की विनाशलीला जीवन को तबाह करेगी। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अगर धरती का बढ़ता तापमान रोकने की कोशिश नहीं हुई तो दुनिया भर में समुद्र का स्तर 50 से 130 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जाएंगे। देखा भी जा रहा है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रुप से पिघल रही है।

अगर बर्फ का पिघलना थमा नहीं तो आने वाले वर्षों में न्यूयाॅर्क, लाॅस एंजिल्स, पेरिस और लंदन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में होंगे। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते तापमान के कारण दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से कम रह गयी है। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं।

6 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है। कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। पर्यावरणविदों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यतः ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी। आंकड़ों पर गौर करें तो 2000 से 2010 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की दर प्रतिवर्ष 3 फीसद रही जबकि भारत के कार्बन उत्सर्जन में यह वृद्धि 5 फीसद रही। कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक रुप से कोयला जिम्मेदार है।

हालांकि ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट पर गौर करें तो अमेरिका और चीन ने कोयले पर अपनी निर्भरता काफी कम की है। इसके स्थान पर वह तेल और गैस का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत की बात करें तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है। इस निर्भरता को घटाना होगा। साथ ही पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसना होगा।

जंगल और वृक्षों का दायरा बढ़ाना होगा। पेड़ और हरियाली ही धरती पर जीवन के मूलाधार हैं। वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है। धरती पर प्राणवायु आॅक्सीजन से लेकर जरुरी भोजन मुहैया कराने के लिए यही वृद्ध जिम्मेदार हैं। वृक्षों और जंगलों का विस्तार होने से धरती के तापमान में कमी आएगी।

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लेकिन विडंबना है कि वृक्षों और जंगलों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ‘ग्लोबल फॅारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट’ (जीएफआरए) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसद घटा है और 102,000 लाख एकड़ से अधिक का क्षेत्र 98,810 लाख एकड़ तक सिमट गया है। यानी 3,190 लाख एकड़ वनक्षेत्र में कमी आयी है। गौर करें तो यह क्षेत्र दक्षिण अफ्रीका के आकार के बराबर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राकृतिक वन क्षेत्र में कुल वैश्विक क्षेत्र की दोगुनी अर्थात छः फीसद की कमी आयी है। उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों की स्थिति और भी दयनीय है।

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यहां सबसे अधिक 10 फीसद की दर से वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है। वनों के विनाश से वातावरण जहरीला हुआ है और प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआॅक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। ओजोन को पृथ्वी का सुरक्षा कवच कहा जाता है क्योंकि यह जीवों की सूर्य की पराबैगनी किरणों से रक्षा करता है। बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय बढ़ते तापमान से निपटने के लिए ठोस प्रभावी उपाय ढ़ुढ़ें अन्यथा इसकी भीषणता संपूर्ण जनजीवन को तबाह कर सकती है।

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