मै क्या सोचता हूँ, ‘भारत में मनुस्मृति को जलाने का चलन है’

एनटी न्यूज डेस्क/सम्पादकीय-विशेष

लेनिन की मूर्ति गिराई नहीं गई…बल्कि खुद गिर गई! ‘सत्य मजबूती से अडिग रहता है, झूठ का बार-बार हमला इसमें और निखार लाता है।’ यह सार्वभौमिक है। कई लोकसभा चुनावों से ‘हिंदुत्व’ को मजबूत होते देखा जा रहा है। विधानसभा चुनावों में जीत संघ-भाजपा की जोड़ी में तो चार चांद ही लगा देता है। वहीं एक विश्वविख्यात सैद्धांतिक आधार होने के बावजूद ‘लाल सलाम’ के सिकुड़ने का दौर अभी भी जारी है।

मनुस्मृति

पश्चिम बंगाल से अभी उबर भी नहीं पाया था कि त्रिपुरा में भी लाल गढ़ चरमरा कर गिर पड़ा है। बंगाल जहां 35 वर्षों के गढ़ के अंत का साक्षी बना, तो त्रिपुरा 25 वर्षों का। केरल कब?

भाजपा से ताल्लुक रखने वाले एक व्यक्ति कहते हैं,”ठीक ऐसा ही कुछ ‘धर्मशास्त्र और हिंदुत्व’ के साथ हो रहा है, यह सत्य है, विश्वव्यापी है, अमर है जिसपर झूठ का बार-बार आघात इसमें और निखार ला रहा है, यह परचम लहरा रहा है।”

लेनिन की मूर्ति क्या गिरी कि वाम तबका में हाय तौबा मच गया। नए-नए तर्क गढ़ के लाए गए। दबे जुबान में लेनिन की तुलना बुद्ध और गांधी से कर दी गई कि ये दोनों भी तो दूसरे देशों में विदेशी ही हैं जिनका प्रभाव श्रीलंका, म्यांमार, जापान, भूटान, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में देखने को मिलता है, बिलकुल लेनिन की तरह।

आपने सुना होगा कि भारत में ‘मनुस्मृति’ को जलाने का चलन है। क्यों?…क्योंकि इसी के कारण भारत में दलितों का उत्पीड़न हुआ है। किसने कहा?….दलितों का मसीहा आंबेडकर ने! तो फिर क्या…मानने वाले मान गए आंबेडकर की बातें मतलब पत्थर की लकीर। सभी जानते हैं, किताबें अपने समय की धरोहर होती है, तत्कालीक समाज की संरचना, विशेषता और गुण-अवगुण जानने का माध्यम होती है।

कोई भी किताब पूर्ण नहीं होती, उसमें खामियाँ हो सकती है और साथ में कई विचारों का सार, नैतिकता आदि का समावेश होता है। आज मनुस्मृति अस्तित्व में नहीं है, कहीं भी प्रचलन में नहीं है। लगभग प्रत्येक समाज आधुनिक मूल्य/आदर्श स्वीकार कर चुका है।

प्राकृतिक कानून और अधिकार के साथ-साथ मानवाधिकार ज्यादा स्वीकार किये जाने लगे हैं। अगर ऐसी परिस्थिति में कोई किताबों को जला रहा है तो क्या कहेंगे? कहेंगे तो कुछ नहीं लेकिन एक तर्क हमेशा आता है कि आंबेडकर ने जलाया था। तो क्या ये सभी मानकर चल रहे हैं कि उन्होंने जो कहा था वह पत्थर की लकीर है? जिसकी समीक्षा नहीं हो सकती? आप जानते होंगे कि किसी के विचार क्या हैं? वह परिस्थितियों और परिप्रेक्ष्यों पर निर्भर करता है।

आंबेडकर के साथ भी ऐसा ही है, अगर उस दौरान उन्हें मंदिर में घुसने की इजाज़त दे दी गयी होती तो वे बौद्ध धर्म नहीं अपनाते और उनका विचार आज अलग परिप्रेक्ष्य में होता। हिन्दू धर्म के बड़े हिमायती होते। शायद! यह अलग मसला है।

मनुस्मृति के अपमान पर यहीं प्रोगेसिव ब्रिगेड(वामपंथी) चुप रहते हैं। जिन्हें ‘राष्ट्रवाद’ में यकीन नहीं लेकिन ‘मानवतावाद’ में है, फिर भी केरल और त्रिपुरा में मारे गए राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए उफ्फ तक नहीं निकलता।

कल स्थिति तब असमंजस जैसी हो गई जब सीपीएम के एक नेता ने सुमित अवस्थी के कार्यक्रम में उत्तर कोरिया के तानाशाह को हीरो करार दिया कि उसने इतना साहस तो दिखाई कि अमेरिका को चुनौती दी, लेकिन भारत तो अमेरिका से ही हथियार खरीद रहा है।

जब यूपीए की सरकार ने 2008 में अमेरिका से असैन्य परमाणु करार की तो वामपंथियों ने गठबंधन तोड़ लिया था। जाहिर है केंद्र में शीत युद्ध की दुश्मनी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध(खासकर 1942 का वर्ष) से लेकर आज तक भारत में वामपंथी आंदोलन कॉमिन्टर्न से संचालित होता रहा है।

लेखक संदीप देव अपनी किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ में तमाम प्रमाण दिए हैं कि जब सुभाष चंद्र बोस ने भारत को आजाद कराने के लिए जर्मनी-जापान से सहायता ली तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इन्हें ‘तोजो का कुत्ता’ कहा था। कारण कि उससमय रूस ब्रिटेन के साथ और जर्मनी के खिलाफ था। (1942 के बाद जब जर्मनी ने रूस से की गई संधि को हवा में उड़ाकर हमला बोल दिया था।)

त्रिपुरा में जनता को पश्चिम बंगाल की तरह समझ में आ गया था कि मजबूत सैद्धांतिक आधार होने के बाद भी 25 सालों में स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया तो एक ‘गरीब मुख्यमंत्री’ जो खुद अमीर नहीं हो पाया दूसरे को क्या करेगा?(इस वाक्य को व्यंग्य के रूप में पढ़ा जाए।)

भले ही साक्षरता, मानव विकास आदि की रैंकिंग में भारी उछाल देखने को मिले हों लेकिन ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ को अप्रत्यक्ष और अघोषित प्रतिबंध लगाने का दौर जारी था, तभी तो भाजपा की जीत के बाद प्रतिक्रिया में एक लड़की कहते नजर आई कि अब खुले हवा में सांस ले पाएंगे। त्रिपुरा में गुप्त रूप से लोकतंत्र की आड़ में वही सब किया जा रहा था जिसे लेनिन ने खुलेआम किया हुआ था। सेंसर, पाबंदी, हत्याएं…..। तो आक्रोश क्यों नहीं फूटेगा।

लेनिन की मूर्ति का गिरना जनाक्रोश की अभिव्यक्ति थी, जिसतरह फ्रांस में जनता ने बास्तील के किले का फतह किया था। वास्तव में त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति गिराई नहीं गई….बल्कि खुद-ब-खुद गिर गई। (आलेख असंपादित है। इसका संबंध किसी भी संगठन, पार्टी या संस्थान से नहीं है। आलेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। यह आलेख लेखक के त्वरित टिप्पणी का अगुआई करता है।)

सुरेश आर गौरव

आई आई एमसी से पत्रकारिता कर रहे हैं , मूलता बिहार के निवासी हैं।

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अध्याय सात : मेरे वजूद का हर जर्रा वतन की खाक में मिलकर एक हो जाए

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष : ‘महिला सशक्तीकरण की प्रतिबद्धता’

 

Advertisements