एनटी न्यूज़ डेस्क / वर्ल्ड स्पैरो डे / विशेष
मुझे याद आता है मेरा बचपन, जब घर में माँ चावल के कुछ दाने हाथ में देकर कहती थी आंगन में डाल दो. ‘चिड़िया रानी आएगी, दाना चुग जाएगी’ चिड़िया रानी तो सिर्फ गौरैया थी. बाकी किसी चिड़िया को तो मैने देखा ही नहीं. आंगन में चावल के कुछ दानें पड़ते ही एक जंग शुरू होती थी. गौरैया का समूह चोंच से कैसे तिनकों को उठाता, देर तक पूरा खेल देखता फिर अगर कोई आंगन की तरफ बढ़ता तो चिड़िया रानी फुर्र…
कहाँ गयी चिड़िया रानी…
आज जब विश्व गौरैया दिवस का पता चला तो बस याद और तेजी से उमड़ आई. सच तो यह भी है कि अब वो बचपन नहीं, लेकिन दिल तो अभी भी उन यादों में खोया है. ढूँढ रहा है उसी पल को.
लेकिन चिड़िया रानी, बड़ी सयानी पता नहीं कहाँ गुम हो गई हैं. क्या मेरे बचपन की तरह वो भी ओझल हो रही है.
कौन ज़िम्मेदार…
बचपन में आंगन वाली बात का अगर ध्यान दिया जाये तो किसी के आते ही चिड़िया रानी फुर्र हो जाती थी. लेकिन लौट कर वापस जरुर आती थी. आज आंगन सूना है सब को रोक कर रखा है. चावल के तिनके भी पड़े है. लेकिन चिड़िया रानी नहीं है.
इसका ज़िम्मेदार कौन है. हमारी जरूरते.
यह कारण है…
विकास और विज्ञान दोनों एक साथ तेजी से बढ़ रहे है. जहाँ एक और हमे अपने आराम के लिए तरह तरह के संसाधनों की जरूरतें हो रही है, वहीं यही संसाधन कहीं न कहीं प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं.
विकास की बात अगर करें तो कच्चे घरों की जगह पक्के घरों ने ले ली है. वहीं उद्योगों को स्थापित करने के लिए, सड़क निर्माण के लिए हरे-भरे पेड़ों को काट दिया जाता है. उद्योग आये तो अपने साथ ढेरों कमियां भी लाये. इसकी सबसे बड़ी उपज तो प्रदुषण ही रही है.
अब हमारी जरूरते मोटर गाड़ी, मोबाइल फ़ोन, आलीशान मकान यही तो है. एक भीड़ सी हो चली है मोटर गाड़ियों की, जिधर देखों वाहनों के निकलते धुंए, हार्न की आवाज.
हाथ का मोबाइल फोन गजब की तकनीकी है, आज सभी के पास है. और उसके नेटवर्क के बड़े-बड़े टावर भी हर जगह है.
इन सब का चिड़िया रानी पर क्या प्रभाव…
यही सोंच रहे है आप ! लेकिन सच यही है गायब हो रही चिड़िया रानी के पीछे हमारी जरूरतें ही कारण है. चलिए बताते है
बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है. ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं. ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं. इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है. गांवों में अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं, जिस कारण मकानों में गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है.
पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे. उसमें लकड़ी और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था. कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध करते थे. लेकिन आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उपलब्ध नहीं होती है. यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता है.
शहरों में भी अब आधुनिक सोच के चलते जहां पार्को पर संकट खड़ा हो गया. वहीं गगन चुंबी ऊंची इमारतें और संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गई.
शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल टावर एवं उससे निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में फंस गई है. देश में बढ़ते औद्योगिक विकास ने बड़ा सवाल खड़ा किया है.
फैक्ट्रियों से निकले केमिकल वाले जहरीले धुएं गौरैया की जिंदगी के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं. उद्योगों की स्थापना और पर्यावरण की रक्षा को लेकर संसद से सड़क तक चिंता जाहिर की जाती है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह दिखता नहीं है.
विश्व गौरैया दिवस…
पर्यावरण प्रेमीयों को गौरैया की कमी महसूस होने लगी. और यह चिंता का विषय भी था जिसके बाद 20 मार्च को ‘वर्ल्ड स्पैरो डे’ मनाया जाने लगा. इस दिन को गौरैया संरक्षण के लिए मनाया जाता है जो एक प्रबल मुहीम बन चुकी है.
इस मुहीम की शुरुआत सन् 2008 में बाम्बे से शुरू की गयी. और वर्तमान में इस मुहीम में पचास से ज्यादा देश शामिल है.
इस मुहीम के चलते लोग जागरूक हो रहे है. और जागरूक होना भी चाहिए, नहीं तो गिद्ध जैसे पक्षी की तरह यह भी हवा हो जाएगी. और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सिर्फ हाथ के मोबाइल में एक तस्वीर मात्र दिखाई देगी.
मीडिया विशेषांक: मीडिया की नैतिकता और तटस्थता की समझ हम पत्रकारों में भी नहीं है
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