एनटी न्यूज़ / संपादकीय डेस्क / लखनऊ
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान जिस तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार पर बेबुनियाद आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री के समक्ष पहुंचकर उन्हें कुर्सी से उठाने की कोशिश के साथ गले पड़कर प्रायोजित प्रहसन को अंजाम दिया उससे न सिर्फ संसदीय गरिमा का क्षरण हुआ है बल्कि राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता पर भी मुहर लगी है. हद तो तब हो गयी जब वे प्रधानमंत्री के गले पड़ने के बाद आंख मारते हुए कुटिल मुस्कान बिखेरी.
राहुल की इस हरकत ने उन्हें विदूषक और मसखरी करने वाले नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया है. एक स्वस्थ संसदीय विमर्श के दौरान इस तरह के आचरण की इजाजत नहीं दी जा सकती. कांग्रेस पार्टी चाहे जितनी भी सफाई दे लेकिन इस कृत्य से राहुल गांधी की छवि खराब हुई है और सच कहें तो उनकी इस हरकत ने उन्हें पीएम पद की रेस से अलग कर दिया है. राजनीति में प्रतीकों, संकेतों और आचरण-व्यवहार का अपना महत्व होता है. उसके ढे़र सारे मायने होते हैं.
संसद सदस्यों से उम्मीद की जाती है कि वह अपने आचरण-व्यवहार से देश को सकारात्मक संदेश दें. लेकिन राहुल गांधी इस कसौटी का मजाक उड़ाया है. वह तो अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए कुर्सी से नहीं उठे अन्यथा कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डा0 मनमोहन सिंह के फर्क को मिटा दी होती. उसे संदेश देने का मौका मिल जाता कि देश का प्रधानमंत्री कोई भी बने, उठा-बैठक कराने की मनमर्जियां तो दस जनपथ से ही चलेगा. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कड़े रुख से तत्क्षण ही कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों को आभास दिला कि वे दूसरी मिट्टी के बने हैं.
उन्होंने कहा भी कि लोकतंत्र में कुर्सी पर बिठाना और उतारना जनता के हाथ में होता है न कि सियासी घरानों की मर्जी पर. बहरहाल कांग्रेस पार्टी अपने अध्यक्ष राहुल गांधी के हैरान कर देने वाले आचरण को भले ही उनकी सदाशयता से जोड़कर देखे लेकिन असल सच तो यह है कि गली-चौराहों से लेकर सोशल मीडिया पर राहुल गांधी का जमकर मजाक उड़ रहा है. ऐसे में भाजपा विरोधी और कांग्रेस के सहयोगी दल राहुल गांधी को कितनी गंभीरता से लेंगे, इसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. जिस तेलगु देशम पार्टी के कंधे पर अविश्वास प्रस्ताव का तोप रखकर कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लेने की कोशिश की वह अंततः उसी का निशाना बनकर रह गयी.
दो राय नहीं कि अविश्वास प्रस्ताव का मौका कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए एक बेहतरीन अवसर था कि वह गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर तथ्यों के साथ अपनी राय बेबाकी से रखते हुए मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकते थे. लेकिन देखा गया कि वे गंभीर विमर्श के बजाए राफेल विमान डील जैसे संवेदनशील मुद्दे को उठाकर सरकार को भ्रष्टाचारी साबित करने की कोशिश की. लेकिन लगे हाथ ही उनका आरोप निराधार हो गया.
संसद में राहुल गांधी के बयान के महज दो घंटे के भीतर ही फ्रांस सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि राफेल विमान डील में गोपनीयता का प्रावधान मौजूद है. कांग्रेस और राहुल गांधी की स्थिति तब और हास्याद्पद हो गयी जब रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने राफेल सौदे को लेकर यूपीए सरकार द्वारा किए गए समझौते का दस्तावेज संसद में लहरा दिया. देश हतप्रभ है कि राहुल गांधी सफेद झूठ बोलकर देश को गुमराह क्यों कर रहे हैं.
आश्चर्य तो यह लगा कि नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद जिसका अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ा है, और आज की तारीख में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है, उसे भी राहुल गांधी सरकार की नाकामी के तौर पर गिनाते दिखे. जबकि वे अच्छी तरह अवगत हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर है. जहां तक राजनीतिक नफे-नुकसान का सवाल है तो भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश और गुजरात का चुनाव जीत चुकी है.
अब इस मुद्दे के भरोसे राजनीतिक फायदा और नुकसान कमाना-गंवाना संभव नहीं है. बावजूद इसके राहुल गांधी को लग रहा है कि वे इसे राजनीतिक औंजार बनाकर सत्ता का संधान कर सकते हैं तो इसका सीधा मतलब यह हुआ कि उनके पास मोदी सरकार के खिलाफ कहने को कुछ नहीं है. कांग्रेस को उम्मीद थी कि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए वह मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में सफल रहेगी. लेकिन जिस तरह संसद में राहुल गांधी के अगंभीर अनर्गल आरोप और बचकानी हरकतें देखी गयी उससे अब इस बात की उम्मीद कम ही है कि विपक्षी दल उन्हें और उनकी पार्टी को तवज्जों देंगे.
गौर करें तो कांग्रेस ही नहीं स्वयं राहुल गांधी भी कई बार कह चुके हैं कि वे प्रधानमंत्री के दावेदार हैं. लेकिन उन्होंने संसद में अपनी कमजोरी को उजागर कर विपक्षी दलों को संशय से भर दिया है. अब वे शायद ही उनकी पालकी ढ़ोने को तैयार होंगे. स्वयं कांग्रेस पार्टी के अंदर ही उनके नेतृत्व को लेकर कानाफूसी शुरु हो गयी है. दरअसल इस स्थिति के लिए राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की ओछी राजनीति जिम्मेदार है. कांग्रेस समझने को तैयार ही नहीं है कि देश बदल रहा है और बदलाव के संवाहक प्रधानमंत्री मोदी हैं. उसी नासमझी का परिणाम है कि उसका जनाधार तेजी से खिसक रहा है और राजनीतिक समझ और अंतर्दृष्टि रखने वाले शीर्ष नेता कांग्रेस को अलविदा कह रहे हैं.
यह सही है कि राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपे जाने के बाद कांग्रेस में उत्साह का संचार हुआ है. लेकिन जिस तरह राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को चुनाव-दर-चुनाव हार मिली है उससे कांग्रेस पार्टी का राहुल गांधी पर से भरोसा उठने लगा है. उसी अवसाद का नतीजा है कि कभी वह राहुल गांधी को मंदिर का दर्शन करा रही है तो कभी मस्जिदों और दरगाहों का चक्कर कटवा रही है. कभी उनके इशारे पर उनके सिपाहसालार देश को हिंदू पाकिस्तान तो कभी हिंदू तालिबान बता रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या इस दोहरे आचरण से राहुल गांधी देश का दिल जीतने में सफल रहेंगे? कहना मुश्किल है.
याद होगा 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद ही एक अखबार को दिए साक्षात्कार में दस जनपथ के अति निकटस्थ समझे जाने वाले कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने कहा था कि एक 63 साल के नेता (नरेंद्र मोदी) ने युवाओं को आकर्षित कर लिया लेकिन एक 44 साल का नेता ऐसा नहीं कर सका. स्वयं राहुल गांधी ने संसद में इसे साबित भी कर दिया. ऐसा नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र ने कांग्रेस को बदलने का मौका नहीं दिया. नोटबंदी और जीएसटी जैसे मसले पर कांग्रेस चाहती तो सरकार के साथ खड़ा होकर कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी भूमिका सारगर्भित कर सकती थी. लेकिन वह इससे चूक गयी.
एक ओर वह भ्रष्टाचारियों के सुर में सुर मिला नोटबंदी के फैसले को राष्ट्रविरोधी करार दिया वहीं जीएसटी के सवाल पर देश को गुमराह करने की कोशिश की. जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कहा. मजेदार बात यह है कि जिस राहुल गांधी पर कांग्रेस को भरोसा है कि वह अपने हैरतअंगेज सियासत से पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में कामयाब रहेंगे, वे राजद जैसी भ्रष्ट पार्टी के कंधे पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचने का ख्वाब बुन रहे हैं.
अभी भी वक्त है कि कांग्रेस पार्टी समझ ले कि उसके घटते जनाधार और सिकुड़ती जमीन के दो महत्वपूर्ण कारण हैं. एक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जनता की कसौटी पर खरा उतरना और दूसरा मोदी को हटाने के लिए किसी भी हद तक गिरना. निःसंदेह कांग्रेस को अधिकार है कि वह सरकार की जनविरोधी नीतियों की आलोचना करे. लेकिन देखा जा रहा है कि वह सरकार की वाजिब आलोचना के बजाए सरकार के लोकहितकारी कार्यों और प्रधानमंत्री मोदी की अनावश्यक आलोचना कर खुद की मिट्टी पलीत कर रही है.
जिस तरह वह संसद में लंबित पड़े विधेयकों को पारित कराने से रोक रही है और अविश्वास प्रस्ताव जैसी नौटंकी के जरिए देश का समय और धन जाया कर रही उससे साफ है कि जनसरोकार से कांग्रेस का कुछ भी लेना-देना नहीं है. उचित होगा कि कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों आत्मचिंतन करें कि आखिर उनसे कहां चूक हो रही है.
अरविंद जयतिलक का लेखः ई-मेल से
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