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गलवान घाटी में चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय जवानों पर हमला दोनों देशों के रिश्ते को दुश्मनी और नफरत में बदल दिया है। इस हमले में भारत के 20 जवान शहीद हुए हैं वहीं चीन को भी अपने 43 जवान खोने पड़े हैं। गौर करें तो इस हालात के लिए पूर्ण रुप से चीन ही जिम्मेदार है। अगर वह समझौते का पालन करता तो ऐसी भयावह स्थिति नहीं उपजती। बहरहाल इस टकराव का सर्वाधिक खामियाजा चीन को ही भुगतना होगा।
उसके आक्रामक रुख से न सिर्फ भारत से संबंध बिगड़ेंगे बल्कि उसे बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान भी होगा। चीन को समझना होगा कि उसके आक्रामक रवैए से भारत में उसके उत्पादों के बहिष्कार का माहौल बनना शुरु हो गया है। देश के करोड़ों खुदरा और थोक व्यापारियों ने चीन से आयातित माल का बहिष्कार करने का एलान कर दिया है।
इस अभियान के द्वारा व्यापारियों की योजना दिसंबर 2021 तक चीन से आयात बिल एक लाख करोड़ रुपए से घटाना है। देश के व्यापारियों ने करीब 3000 ऐसी वस्तुओं की सूची बनायी है जिनका बड़ा हिस्सा चीन से आयात किया जाता है। इन वस्तुओं को भारत में बनाया जा सकता है। वैसे भी किसी से छिपा नहीं है कि चीन मैन्युफैक्चरिंग में घटिया कच्चे माल का इस्तेमाल कर उसे भारत में उतार रहा है।
इस कारण भी उसके उत्पादों की मांग तेजी से घट रही है। उपर से उसका आक्रामक रवैया कोढ़ में खाज का काम करेगा। आंकड़ों पर गौर करें तो विगत दो दशकों में चीन का भारत में व्यापार कई गुना बढ़ा है। 1984 में दोनों देशों द्वारा ‘सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र’ यानी एमएफएन पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद भारत की अपेक्षा चीन कई गुना ज्यादा फायदे में रहा है।
सन् 2000 में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2.9 अरब डाॅलर था जो कि आज 2020 में बढ़कर 82 अरब डाॅलर के पार पहुंच चुका है। इसमें चीन से आने वाला माल यानी आयात करीब 65.26 अरब डाॅलर का है। इस आंकड़ें को देखें तो चीन फायदे में हैं। आंकड़ें यह भी बताते हैं कि भारत में चीन का निवेश उतना नहीं है जितना भारत का चीन में है। 2007 में भारत में चीन का निवेश 16 मिलियन डाॅलर था जबकि उसी समय भारतीय निवेशकों ने चीन की 78 परियोजनाओं पर 34 मिलियन डाॅलर निवेश किया।
इसी तरह अक्टूबर 2011 तक भारत में चीन का निवेश 50.77 मिलियन डाॅलर रहा जबकि चीन में भारतीय निवेश 432.98 मिलियन डाॅलर तक पहुंच गया। 2011 में चीन को भारतीय निर्यात 23.41 अरब डाॅलर का था जबकि भारत को चीन का निर्यात 50.49 डाॅलर रहा। पिछले वर्ष दोनों देशों के बीच 85 अरब डाॅलर से अधिक का व्यापार रहा। लेकिन भारत को व्यापार घाटे से गुजरना पड़ा। यह सच्चाई है कि आज भारत का व्यापार घाटा का बड़ा हिस्सा चीन की वजह से है।
चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा पिछले साल 50 अरब डाॅलर तक पहुंच गया। सीआइआइ-एवलाॅन का अनुमान है कि 2021 तक व्यापार घाटा 60 बिलियन डाॅलर तक पहुंच जाएगा। अगर दोनों देशों के रिश्ते में खटास उत्पन होता है तो भारत को आर्थिक नुकसान तो होगा ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा चीन को भारी आर्थिक नुकसान उठाना होगा। वैसे भी टीवी, रेफ्रिजरेटर, एसी, वाशिंग मशीन और मोबाइल फोन जैसी इलेक्ट्राॅनिक वस्तुओं के दूसरे विकल्प मिलने की वजह से वित्त वर्ष 2019-20 में चीन से होने वाला आयात घटकर महज 1.5 अरब डाॅलर रह गया है। इसी प्रकार ईंधन, मिनरल आॅयल, फार्मा और केमिकल्स के आयात में भी गिरावट आयी है।
इसे ध्यान में रखते हुए ही चीन की सरकारी मीडिया ने अपनी कंपनियों को सावधान किया है कि वे भारत में निवेश को लेकर सतर्क रहे। दरअसल चीन को अच्छी तरह पता है कि दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ने पर सबसे अधिक उसके हितों को ही भारी नुकसान पहुंचेगा। दो राय नहीं कि दुनिया भर के बाजारों में चीन निर्मित उत्पादों का डंका बज रहा है। दुनिया उसकी मैन्युफैक्चरिंग ताकत का लोहा मान रही है। लेकिन गुणवत्ता और भरोसे की बात करें तो चीनी उत्पाद मानकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर रहे हैं।
दुनिया भर में उसके उत्पादों की विश्वसनीयता अब शक के दायरे में आ रही है। दुनिया समझने लगी है कि चीन संसाधनों की सीमित उपलब्धता के कारण मैन्युफैक्चरिंग में घटिया कच्चे माल का इस्तेमाल कर रहा है और न्यूनतम मजदूरी के बूते अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अपना घटिया व सस्ता माल उतार रहा है। उसके इस खेल से उसके उत्पादों की मांग तेजी से घटने लगी है।
जबकि दूसरी ओर भारतीय उत्पाद अपनी उच्च गुणवत्ता के कारण दुनिया भर में लोकप्रिय हो रहे हैं और उनकी मांग तेजी से बढ़ रही है। इसे लेकर चीन भारत से जलभुन रहा है। याद होगा गत वर्ष यूरोपीय संघ और दुनिया के 49 बड़े देशों को लेकर जारी ‘मेड इन कंट्री इंडेक्स’ (एमआइसीआइ-2017) में उत्पादों की गुणवत्ता के मामले में चीन भारत से सात पायदान नीचे रहा।
इंडेक्स में भारत को 36 अंक वहीं चीन को 28 अंक मिले। इंडेक्स में शीर्ष स्थान पर जर्मनी और दूसरे स्थान पर स्विट्जरलैंड रहा। बता दें कि स्टैटिस्टा ने अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्था डालिया रिसर्च के साथ यह अध्ययन दुनियाभर के 43,034 उपभोक्ताओं की संतुष्टि के आधार पर किया। सर्वे में शामिल यह देश दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। लिहाजा सर्वे की विश्वसनीयता का अपना महत्व है और उसे चीन खारिज नहीं कर सकता।
सर्वे में उत्पादों की गुणवत्ता, सुरक्षा मानक, वसूली, विशिष्टता, डिजायन, एडवांस्ड तकनीकी, भरोसेमंद, टिकाऊपन, सही उत्पादन व प्रतिष्ठा को शामिल किया गया। इन मानकों पर चीनी उत्पादों का खरा न उतरना न सिर्फ उसकी बदनामी भर है बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरनाक संकेत है। चीन भले ही अपनी इंजीनियरिंग कारीगरी से अपने उत्पादों को दुनिया के बाजारों में पाटकर फूले न समा रहा हो पर वह दिन दूर नहीं जब उसकी हालत 19 वीं सदी के समापन के दौर की उस जर्मनी जैसी होगी जो अपने गुणवत्ताहीन उत्पादों के लिए दुनिया भर में बदनाम हुआ। तब जर्मनी भारी मात्रा में अपने घटिया और बड़े ब्रांडों की नकल करके बनाए गए उत्पादों को ब्रिटेन निर्यात करता था। इससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी और अंततः ब्रिटेन को गुणवत्ताविहिन उत्पादों से बचने के लिए ‘मेड इन’ लेवल की शुरुआत करनी पड़ी।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में दुनिया के देश चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाएं। अभी गत वर्ष ही भारत ने चीन से दूध, दूध उत्पादों और कुछ मोबाइल फोन समेत कुछ उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगाया। ये उत्पाद निम्नस्तरीय और सुरक्षा मानकों की कसौटी पर खरा नहीं पाए गए। भारत ने 23 जनवरी, 2016 को भी चीनी खिलौने के आयात पर प्रतिबंध लगाया था। फिर चीन को विश्व व्यापार संगठन में अपने आंकड़ों से साबित करना पड़ा कि उसके उत्पाद बढ़िया हैं।
दुनिया के अन्य देशों में भी चीन के घटिया उत्पादों पर प्रतिबंध लगना शुरु हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार विशेष रुप से अमेरिका, यूरोप में चीन के घटिया उत्पादों की बिक्री घटी है। स्वयं चीन के कारोबारियों का कहना है कि प्रतिस्पद्र्धा की वजह से पिछले पांच साल में उत्पादों की कीमत में करीब 90 प्रतिशत तक कटौती कर चुके हैं। उनकी मानें तो पिछले तीन सालों में मजदूरी दोगूना बढ़ने और गुणवत्ता पर ध्यान देने से चीन में बने सामान भी सस्ते नहीं रह जाएंगे। अगर चीन उत्पादों की गुणवत्ता पर ध्यान देता है तो स्वाभाविक रुप से उत्पादों की कीमत में वृद्धि होगी और कीमत बढ़ने से अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उनकी मांग प्रभावित होगी।
गौरतलब है कि चीन की सरकार अपने उत्पादकों को सामान बनाने से लेकर निर्यात तक में भारी रियायत देती है और उसका फायदा उत्पादकों को मिलता है। लेकिन अब मांग घटने से चीन की अर्थव्यवथा डांवाडोल होने की स्थिति में है। दूसरी ओर उसने अपने सबसे बड़े कारोबारी साझीदारों में से एक भारत से दुश्मनी मोल लिया है। लिहाजा उसे अपनी आर्थिक रीढ़ चरमराते हुए देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।
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