जम्मू-कश्मीर से 10000 जवानों को हटाने का मोदी सरकार ने लिया फ़ैसला

न्यूज़ टैंक्स | लखनऊ

Kasmir News

पिछले साल भारत प्रशासित कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाले अनुच्छेद-370 को हटाए जाने के बाद से सुरक्षाबलों के हज़ारों जवान केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आदेश में कहा गया है कि ‘केंद्रीय पुलिस बलों की 100 कंपनियों को जम्मू-कश्मीर से वापस बुलाकर उन्हें उनकी संबंधित जगहों पर भेजने के आदेश दिए गए हैं.’

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यह आदेश ऐसे समय पर आया है, जब कश्मीर में लगातार चरमपंथी हमले, एनकाउंटर और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएँ जारी हैं.विशेष दर्जा वापस लिए जाने के बाद भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में महीनों तक कड़े प्रतिबंध, कर्फ़्यू लगाए रखा और संचार के सभी साधन काट दिए थे.हज़ारों अलगाववादी नेताओं, मुख्यधारा के राजनेताओं को हिरासत में ले लिया गया और सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों पर रोक लगाने के लिए कइयों पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट (पीएसए) लगा दिया गया.

हालाँकि, इनमें से कई लोगों को अब रिहा कर दिया गया है, लेकिन अब भी जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती हिरासत में हैं.

जवानों को वापस बुलाने पर लोग ख़ुश हैं?

10,000 सुरक्षाबलों को वापस बुलाए जाने के बाद कई तबकों में काफ़ी चर्चाएँ हैं. हालाँकि, स्थानीय राजनीतिक दलों में इसको लेकर कोई ख़ास उत्साह नहीं है.

नेशनल कॉन्फ़्रेंस के अध्यक्ष और सांसद डॉक्टर फ़ारूक़ अब्दुल्लाह का कहना है कि यह सिर्फ़ लोगों को बेवकूफ़ बनाने के लिए है. उन्होंने बीबीसी से कहा, “यहाँ पर लाखों सुरक्षाबल हैं अगर 10,000 को वापस बुलाया भी जाता है तो उसका क्या मतलब है? मुझे लगता है कि यह दुनिया को बेवकूफ़ बनाने के लिए किया गया है.”

जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी के अध्यक्ष अल्ताफ़ बुख़ारी कहते हैं कि यह एक रुटीन एक्सरसाइज़ जैसा लगता है. वो ये भी कहते हैं, “मुझे इसमें कुछ ख़ास नहीं लगता. शायद सरकार सुरक्षा स्थिति की समीक्षा कर रही होगी. यह एक जारी प्रक्रिया है. ज़मीन पर लोगों को कई राहत नहीं दिख रही है. जब लोग कहेंगे कि राहत महसूस होने लगी है तो हम भी महसूस करेंगे. इसका सामान्य परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं है.”

 कैसे हैं अब जम्मू-कश्मीर

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पीडीपी के प्रवक्ता ताहिर सैयद कहते हैं, “बुनियादी तौर पर यह एक धारणा बनाने का तरीक़ा है. सरकार दावा करती है कि परिस्थिति सामान्य है जो सही नहीं है. अनुच्छेद 370 हटाने की पहली सालगिरह पर सरकार ने कहा कि जम्मू-कश्मीर अब सामान्य हालात का गवाह बन रहा है. लेकिन एक साल के बाद परिस्थितियाँ और ख़राब हैं. सुरक्षाबलों को हटाना एक रुटीन एक्सरसाइज़ है. हज़ारों कंपनियाँ आती हैं और जाती हैं. कल वे (सरकार) 2,000 से अधिक कंपनियाँ भेज सकते हैं. तो इसे सामान्य होते हालात बताना झूठ है.”

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उन्होंने कहा, “लोगों के बीच अलगाव की भावना बढ़ गई है. इस समय सरकारी संस्थानों में लोगों का भरोसा नहीं है. लोग इसके अस्तित्व के एक संकट के रूप में देख रहे हैं. अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के लोगों से झूठ बोलने के लिए राज भवन बनाया गया.”

यहाँ तक कि आम कश्मीरी सुरक्षाबलों को हटाने को बड़े बदलाव के रूप में नहीं देखता है.

श्रीनगर के एक दुकानदार मुदस्सिर अहमद कहते हैं, “ज़मीनी स्थिति नहीं बदली है. लोग डर महसूस करते हैं. मुझे लगता है कि 10,000 सुरक्षाबलों को हटाना आम लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. चरमपंथियों के हमले जारी हैं, लगातार एनकाउंटर हो रहे हैं.”

पत्थरबाज़ी कम हुई?

एक शीर्ष सुरक्षा अधिकारी ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बीबीसी से कहा कि कश्मीर के हालात में बदलाव आया है. उन्होंने कहा, “आप देखिए कि पत्थरबाज़ी की घटनाओं में गिरावट है. एनकाउंटर की जगह पर लोगों के आने की घटना बदल चुकी है.”चरमपंथियों के ख़िलाफ़ अभियान लगातार जारी हैं, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि यह जारी है और इसमें कोई रुकावट नहीं आई है. उन्होंने यह भी कहा कि सुरक्षाबलों को हटाना एक प्रक्रिया है, जो कश्मीर के साथ-साथ जम्मू क्षेत्र में भी अपनाई जा रही है.

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श्रीनगर स्थित उर्दू अख़बार चट्टान के संपादक और विश्लेषक ताहिर मोहिद्दीन कहते हैं, “सरकार कह रही है कि पत्थरबाज़ी की घटनाएँ कम हुई हैं, लेकिन मैं कोई आम हालात नहीं देख रहा हूँ. और हम कोई बड़े सुरक्षाबलों का हटाए जाना नहीं देख रहे हैं. सरकार पब्लिसिटी के लिए यह कर रही है. लोग अभी भी हिरासत में हैं. वे अभी भी कर्फ़्यू लगा रहे हैं और दूसरी चीज़ें हो रही हैं.”

हालाँकि, जम्मू-कश्मीर की भारतीय जनता पार्टी की इकाई का कहना है कि सुरक्षाबलों का हटाया जाना हालात के ठीक होने की ओर इशारा करता है. बीजेपी जम्मू-कश्मीर के इंचार्ज अविनाश खन्ना ने बीबीसी से कहा, “जम्मू-कश्मीर सामान्य होते हालात की ओर जा रहा है. इसकी आप पिछले साल से तुलना करिए.”

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जब उनसे पूछा गया कि सुरक्षाबल और राजनीतिक कार्यकर्ता अभी भी मारे जा रहे हैं तो उन्होंने कहा, “लोगों या सुरक्षाबलों को निराशा के तहत मारा जा रहा है. वे इसलिए कर रहे हैं ताकि उनके आक़ा ख़ुश हों. उनके हाथ में अब कुछ बचा नहीं है. पत्थरबाज़ी की घटनाओं में कमी आई है. यह एक शुरुआत है, हम अब और आगे जाएँगे.”

कोरोना वायरस की वजह से नहीं हो रहे प्रदर्शन?

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जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा जब पिछले साल छीना गया, तो कश्मीर के अलगाववादी और मुख्यधारा के राजनेता एक ही नाव में सवार थे और उनका मानना था कि इससे जनसांख्यिकीय परिवर्तन आएगा.

श्रीनगर स्थित एक अन्य विश्लेषक हारून रेशी का कहना है कि कोविड-19 ने सबकुछ बदल दिया इसलिए लोग किसी जलसे में जाना नहीं चाहते.

उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि अगर परिस्थितियाँ सामान्य होतीं तो लोग भारत सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ नाराज़गी दिखाते. लोग हाथ मिलाने से भी डर रहे हैं तो फिर कैसे लोगों के किसी प्रदर्शन या राजनीतिक रैली का हिस्सा बनने की संभावना है.”

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रेशी कहते हैं, “10,000 सुरक्षाबलों को वापस बुलाना किन्हीं आंतरिक वजहों के कारण हुआ है. हम नहीं कह सकते हैं कि यह सैनिकों को कम करने की कोई प्रक्रिया है, यह भ्रम पैदा कर रहा है. पिछले साल संभावित हिंसा के मद्देनज़र अतिरिक्त सुरक्षाबल तैनात किए गए थे. लेकिन संवैधानिक बदलाव के बाद कोई हिंसा नहीं हुई और अब सरकार सोच रही है कि अधिक सुरक्षाबलों की ज़रूरत नहीं है. हम पिछले साल से तुलना करें तो अभी परिस्थितियाँ ठीक हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सबकुछ ठीक है और सभी मुद्दे सुलझ चुके हैं.”

इस संबंध में बीबीसी ने सरकार के प्रवक्ता रोहित कंसल से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया. बीबीसी ने उन्हें वॉटेसऐप के ज़रिए संदेश भेजा है. उनका जवाब आने पर इस स्टोरी को अपडेट किया जाएगा.

2004 में पाकिस्तान के सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ जब कश्मीर समाधान का फ़ॉर्मूला लाए थे तो उनके चार बिंदू फॉर्मूला में पहला बिंदू जम्मू-कश्मीर के आबादी वाले क्षेत्र में सैनिकों की संख्या कम करना था.

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