एनटी न्यूज़ डेस्क / लखनऊ
केंद्र की मोदी सरकार ने खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागत के मुकाबले डेढ़ गुना कर किसानों के हित में बड़ा फैसला किया है. यह एक ऐसा फैसला है जिसका सिर्फ किसानों को ही नहीं बल्कि देश को बेसब्री से इंतजार था. यह इसलिए कि आज भी देश का बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कृषि पर ही अवलंबित है. ये कह रहे हैं अरविंद जयतिलक अपने लेख में. पढ़िए पूरा लेख और जानिए किसानों और फसलों के विषय में विशेष जानकारी…
पढ़ें- कार और ट्रक में जबरदस्त टक्कर से कार चालक की मौत, तीन घायल
यह अच्छी बात नहीं है कि विपक्षी दल इस फैसले का सम्मान व स्वागत करने के बजाए इसमें कमियां ढूंढ़ रहे हैं. ऐसा करने से कई तरह की भ्रांतियां उत्पन्न होगी और किसानों का मनोबल टूटेगा. जबकि सच तो यह है कि इस फैसले से किसानों की आय बढ़ेगी और अब वे अपनी फसल को लागत मूल्य से डेढ़ गुना मूल्य पर बेच सकेंगे.
न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से उन्हें घाटे से उबरने में भी मदद मिलेगी. अच्छी बात यह है कि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना करते समय ए2+एफएल फॉर्मूला को अपनाया है. इसमें कृषि उत्पादन के नकद व अन्य सभी खर्चों समेत किसान परिवार के श्रम के मूल्य को भी जोड़ा गया है. मजदूरी, बैलों अथवा मशीनों पर आने वाला खर्च, पट्टे पर ली गयी जमीन का किराया, बीज, खाद, तथा सिंचाई खर्च भी इसमें जोड़ा गया है. साथ इसके आधार पर जो लागत आयी है उसमें 50 प्रतिशत लाभांश को जोड़ दिया गया है. निःसंदेह यह पहल किसानों के लिए लाभकारी है और अब उनकी कृषि कार्य में रुचि बढ़ेगी.
पढ़ें- सब ‘जिम्मेदार’ ऐसे हो जाएं तो हो जाए बेड़ा गर्क
गौर करें तो प्रमुख फसल धान समेत कपास, दलहन, तिलहन इत्यादि खरीफ की 14 फसलों के डेढ़ गुने न्यूनतम समर्थन मूल्य किए जाने से अब किसान सामान्य धान को 1550 रुपए के बजाय 1750 रुपए में बेच सकेंगे. इसी तरह ज्वार के मूल्य में 730 रुपए, रागी में 997 रुपए, अरहर में 225 रुपए, मूंगफली में 440 रुपए की वृद्धि की गयी है. लेकिन यहां देखने वाली बात यह होगी कि किसानों के उत्पादों की एमएसपी पर खरीद होती है अथवा नहीं.
यह आशंका इसलिए है कि अभी तक किसानों के फसल का शत-प्रतिशत खरीद नहीं हुआ है. यह सच्चाई है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि का फायदा तभी मिलेगा जब उनकी फसल बिक्री के लिए सरकारी क्रय केंद्रों तक पहुंच सकेगी और सरकारी कर्मचारियों द्वारा ईमानदारी से खरीद की जाएगी. अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि किसान अपनी कुल फसल का सरकारी क्रय केंद्रों पर सिर्फ 25 से 30 प्रतिशत ही बेच पाता है और शेष फसल औने-पौने दामों में गांवों और कस्बों के व्यापारियों को बेचने को मजबूर होता है.
पढ़ें- ये छोटा सा पौधा दिलाता है इन बड़े रोगों से छुटकारा
चूंकि सरकार ने अनाज भंडारण की क्षमता को पूरी तरह विकसित नहीं किया है. ऐसे में सरकार के लिए किसानों की संपूर्ण फसल को खरीदना आसान भी नहीं है. सरकारी भंडारण गृहों की एक निश्चित क्षमता है. इसलिए आवश्यक है कि सरकार भंडारण क्षमता में वृद्धि करे. बहरहाल सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि किए जाने से बाजार के कारोबारी भी दबाव में होंगे और वे किसानों के फसल को औने-पौने दामों में नहीं खरीद पाएंगे. उन्हें भी बढ़े मूल्य पर ही उत्पाद खरीदने होंगे.
चूंकि सरकार की नीति और नीयत पारदर्शी है ऐसे में उम्मीद किया जाना चाहिए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना वृद्धि से किसानों को फायदा होगा और वे अब आत्महत्या के लिए विवश नहीं होंगे. अनाज की अच्छी कीमत मिलने से उन्हें कर्ज से उबरने में भी मदद मिलेगी. भारत के किसान किस कदर कर्ज में डूबे हैं यह किसी से छिपा नहीं है. एक आंकड़े के मताबिक देश के 9 करोड़ किसान परिवारों में से 52 प्रतिशत कर्ज में डूबे हैं.
पढ़ें- मोदी सरकार सावधानः पत्थरचोर लगा रहे हैं सरकार को करोड़ों का चूना
आज की तारीख में हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपए कर्ज है. याद होगा गत वर्ष ‘भारत में कृषक परिवारों की स्थिति के मुख्य संकेतक’ शीर्षक वाली रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ था कि आंध्रप्रदेश में 93 फीसद, उत्तर प्रदेश में 44 फीसद, बिहार में 42 फीसद, झारखंड में 28 फीसद, हरियाणा में 42 फीसद, पंजाब में 53 फीसद और पश्चिम बंगाल में 51.5 फीसद किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं. किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य न मिलने के कारण ही उनकी दशा दयनीय हुई है और वे किसान से मजदूर बनने को विवश हुए हैं.
एक आंकड़े के मुताबिक 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या आज घटकर 11 करोड़ से भी कम रह गयी है. यानी 86 लाख किसान कृषि कार्य से विरत हुए हैं. माना जा रहा है कि प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति, उचित मूल्य न मिलना और ऋणों के बोझ के कारण बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ने को मजबूर हैं.
पढ़ें- राहजनी और लूटपाट, कामयाब न होने पर मार देते थे गोली. अब खाएंगे जेल की हवा
पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7 लाख 56 हजार, राजस्थान में 4 लाख 78 हजार, असम में 3 लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती को तिलांजलि दिए. इसी तरह उत्तराखंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ है.
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 में जहां 10 लाख 68 हजार कृषि मजदूर थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गयी. फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बन रहे हैं. इस स्थिति के लिए सिर्फ फसलों का उचित मूल्य न मिलना ही एकमात्र कारण नहीं है. बल्कि इसके लिए सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों का अधिकग्रहण, सिंचाई एवं उर्वरक की अनुपलब्धता और बिजली का अभाव भी है. लेकिन अच्छी बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार ने उर्वरकों की प्रचुर उपलब्धता सुनिश्चित कर दी है.
पढ़ें- सावधानः आपकी ये आदतें जवानी में भी बना देंगी आपको बूढ़ा
एक आंकड़े के मुताबिक सेज के नाम पर देश में 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है. इकोनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण हुआ है और इनमें से अधिकांश का उपयोग गैर-कृषि कार्यों में हो रहा है. नतीजा कृषि अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर पहुंच चुकी है.
ध्यान देना होगा कि एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर 100 किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है. गौर करें तो आज देश में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.18 हेक्टेयर रह गयी है. 82 फीसद किसान लघु एवं सीमांत किसानों की श्रेणी में आ गए हैं और उनके पास कृषि भूमि दो हेक्टेयर या उससे भी कम रह गयी है. अपनी जमीन गंवाने के बाद किसानों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह गया है और वे खानाबदोशों की तरह जीवन गुजार रहे हैं.
पढ़ें- बारिश में ऐसे रहें सावधान नहीं तो आ सकते हैं इन बीमारियों के चपेट में
विस्थापित किए गए किसानों के लिए सरकार को चाहिए कि ठोस पुनर्वास नीति बनाए. साथ ही उन्हें रोजी-रोजगार से जोड़ने के लिए कोई कारगर तरीका अपनाए. यहां यह भी गौर करना होगा कि पिछले तीन दशक में कृषि पर निर्भरता बढ़ी है लेकिन गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का आनुपातिक फैलाव नहीं हुआ है. दूसरी ओर खेती के विकास में क्षेत्रवार विषमता का बढ़ना, प्राकृतिक बाधाओं से पार पाने में विफलता, भूजल का खतरनाक स्तर तक पहुंचना और हरित क्रांति वाले इलाकों में पैदावार में कमी आना के अलावा फसलों और बाजारों की दूरी न घटने, कृषि में मशीनीकरण और आधुनिक तकनीकी के अभाव कारण भी किसानों की दुर्दशा हुई है.
किसान क्रेडिट कार्ड और फसलों की बीमा योजनाओं के अलावा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, गुणवत्तापूर्ण बीज के उत्पादन और वितरण, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी अनगिनत योजनाओं से भी किसानों को राहत नहीं मिली है. बेहतर होगा कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के साथ-साथ कृषि और किसानों की दशा सुधारने के लिए अन्य प्रभावी उपायों की भी पड़ताल करे. सरकार को चाहिए कि वह कृषि के साथ-साथ पशुपालन को भी बढ़ावा दे. क्योंकि इससे किसानों की आमदनी में इजाफा होगा जिससे उनकी समृद्धि बढ़ेगी. किसान बढ़ेगा तभी देश बढ़ेगा.
पढ़ें- जानिए देश के सर्वश्रेष्ठ जिलाधिकारी के बारे में, गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज है इनका नाम