Monday , 29 April 2024

स्मृति शेषः ‘नामवर सिंह’ जितना बड़ा नाम उतना बड़ा दिल

हिंदी आलोचना के “माउंट एवरेस्ट” नामवर सिंह के साहित्यिक अवदान की चर्चा साहित्य के महारथी उनके महाप्रयाण के बाद निरंतर करते ही रहेंगे. नामवर सिंह जी को जैसा मैंने देखा जाना और समझा चर्चा उसी की कर रहा हूं.

बात आज से करीब 12 बरस पहले की है. हिंदी के श्रेष्ठ कवि डॉ शिवमंगल सिंह “सुमन” की स्मृतियों को उनके गृह जनपद उन्नाव में सहेजने का उपक्रम वर्ष 2006 में पिता पंडित कमला शंकर अवस्थी ने किया था. 29 नवंबर 2006 को सुमन जी की पुण्यतिथि पर आयोजित उस कार्यक्रम में पधारने का आग्रह तो हमने देश के नामचीन पत्रकार रहे आदरणीय प्रभाष जोशी जी से किया था. अपने गुरु की मूर्ति के अनावरण की सहर्ष स्वीकृति प्रभाष जी ने तो दे ही दी थी साथ ही भोला सा वादा भी किया था. नामवर सिंह जी को कार्यक्रम में साथ लाने का.

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आयोजकों के बिना औपचारिक आमंत्रण के ही नामवर सिंह जी प्रभाष जोशी जी के साथ डॉ सुमन की मूर्ति अनावरण के मौके पर पधारे थे. कभी सोचा भी नहीं जा सकता कि नामवर सिंह जी जैसा “नामवर” व्यक्ति बिना किसी औपचारिक आमंत्रण के किसी कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है वह भी आज के इस अभिमानी युग में. इसीलिए हमें लगता है कि नामवर जी का “नाम” अपने काम से तो बड़ा था ही लेकिन उनको पहाड़ सी ऊंचाई पर पहुंचाने में “बड़े दिल” की भूमिका भी कम नहीं थी. नाम से तो बड़े हजारों लोग पहले भी हुए हैं, हजारों लोग हैं और हजारों लोग होंगे भी, लेकिन दिल से बड़े व्यक्तित्व कम ही समाज देश को प्राप्त होते हैं. नामवर सिंह जी उन्हीं बड़े दिल वाले व्यक्तित्व में से एक थे. मेरे अपने जीवन में ऐसा पहला और संभवत आखरी अनुभव ही साबित हो.

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उन्नाव की वह यादगार यात्रा….

उन्नाव की उस यादगार यात्रा में देश के श्रेष्ठ पत्रकार आदरणीय राम बहादुर राय साहब भी अपने अपने क्षेत्र के इन दो दिग्गजों के सहयात्री बन कर आए थे. इस यात्रा को यादगार इस संदर्भ में हम नहीं कह रहे की डॉक्टर सुमन की मूर्ति का अनावरण इन दोनों महानुभावों ने किया था. यह यात्रा मेरी यादों के शीर्ष पर ताउम्र के लिए चस्पा है, क्योंकि इसी यात्रा में डॉ नामवर सिंह जी को ईश्वर की कृपा से एक ऐसी अनुभूति हुई थी जिस को कभी भुलाया नहीं जा सकता.

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अमौसी एयरपोर्ट से उन्नाव की यात्रा के बीच में डॉ नामवर सिंह जी ने साथ में मौजूद राय साहब से कहा था की प्रभा जी की 75वीं सालगिरह पहले ही मना ली जाए. बाद में कुछ ऐसा घटित हुआ कि तमाम चाहने वाले प्रभाष जी की 75वीं सालगिरह मनाने से वंचित ही रह गए.

दौलतपुर तीर्थ के दर्शन करा दिए, तुम धन्य हो..

वर्ष 2010 में डॉ नामवर सिंह जी को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग प्रेरक सम्मान से अलंकृत करने का सौभाग्य आचार्य द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति रायबरेली को प्राप्त हुआ था. सम्मान ग्रहण करने के उपरांत नामवर सिंह जी ने आचार्य द्विवेदी के जन्म ग्राम दौलतपुर की यात्रा की थी. उस यात्रा में डॉक्टर नामवर सिंह ने आचार्य द्विवेदी के जन्म स्थान की भूमि पर पुस्तकालय वाचनालय का लोकार्पण किया था. आचार्य द्विवेदी द्वारा घर के सामने बनवाए गए स्मृति मंदिर में 2 देवियों सरस्वती और लक्ष्मी के बीच में स्थापित की गई धर्मपत्नी की मूर्ति के समक्ष माथा टेकते समय नामवर सिंह जी द्वारा कहे गए वह शब्द आज भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं. आचार्य जी के प्रति श्रद्धा भाव से भरे नामवर सिंह जी ने उस वक्त बहुत ही आत्मीयता से कहा था-” गौरव तुम धन्य हो, तुमने दौलतपुर तीर्थ के दर्शन करा दिए”

ल्या.. पंडित ल्या..

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नामवर सिंह जी का साहित्यिक रूप तो लगभग सभी ने देखा सुना और जाना ही है. सहजता सरलता से परिपूर्ण नामवर जी संकोच की सीमाओं से भी परे थे. ऐसे ही एक वाकए से वर्ष 2013 में उनके साथ गुजरना हुआ था. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान भारत-भारती ग्रह करने के लिए उस वर्ष में लखनऊ पधारे थे. सहयोग से तब मैं “हिंदुस्तान” समाचार पत्र में लखनऊ में ही तैनात था. उनके पधारने की खबर पर आशीर्वाद लेने के लिए होटल गोमती पहुंचा था. कमरे में संस्थान के कर्मचारी वाजपेई जी भी पहले से मौजूद थे. दोपहर का वक्त था. दोपहर के भोजन की पूरी तैयारी हो चुकी थी.

बात करते-करते नामवर जी ने अपने बैग से एक बोतल निकाली और तीन गिलास में वह तरल पदार्थ थोड़ा-थोड़ा डाला. नाम तो पूरी तरह याद नहीं लेकिन शायद वह “रोज वाइन” थी. उसमें अल्कोहल नाम मात्र का होता है. कहने को वह दारू थी लेकिन काम उसका दवा से बढ़कर था. नामवर जी ने संकोच का बाड़ा तोड़कर कहा-” ल्या.. पंडित ल्या.. उनके इस आमंत्रण से हतप्रभ हमने और बाजपेई जी दोनों ने हाथ जोड़े मगर उन्होंने कहा यह दारू नहीं दवा है. हम खाने के पहले इसे रोज लेते हैं. तब समझ में आया उनकी सेहत का राज. पिता तुल्य डॉ नामवर सिंह जी का आदेश मानकर हमने तो वह गिलास खाली कर दिया लेकिन पास कहीं की संकोच में ही फंसे रह गए.

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गर्व की अनुभूति कराने वाले विदा हो गए..

हमें हमेशा इस बात का गर्व होता रहा की नामवर सिंह जैसे नामवर लोग भी हमें नाम से पुकारते हैं. उनके ऐसों की उपस्थिति से ही हम ऐसे अकिंचन को दिल्ली भी अपनी लगने लगी थी. लगता था कि दिल्ली ऐसे शहर में कोई अपना संरक्षण दाता मौजूद है. दिल्ली के कई समारोह में उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के मौके मिले हर मौके पर उन्होंने जब नाम लेकर पुकारा तो यह अनुभूति बढ़ती ही गई. आज जब वह महा यात्रा पर निकल गए हैं तो छोटे शहरों के रहने वाले हम और हमारे जैसे हजारों लाखों लोगों को दिल्ली की यात्रा करने में अब संकोच होगा कि पता नहीं कोई पहचानेगा या नहीं.

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(पत्रकार गौरव अवस्थी के साझा अनुभव)